ग़ज़ल पहले प्यार की ( नहीं कहते ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
दिल धड़कने को मुहब्बत नहीं कहते
सर झुकाने को इबादत नहीं कहते ।
गर कभी तकरार हो दोस्ती में तब
भूल जाते हैं अदावत नहीं कहते ।
दिल लगाना दिल्लगी मत समझ लेना
साथ रहने को ही उल्फ़त नहीं कहते ।
बेक़रारी ख़त्म होती नहीं मिलकर
चैन आ जाए तो राहत नहीं कहते ।
प्यार को दुनिया ख़ता मानती क्यों है
है दिलों की उनकी चाहत नहीं कहते ।
दूर होने से वफ़ा और कम नहीं होती
हो गई उनसे है नफ़रत नहीं कहते ।
ये मुहब्बत इक तराना सुनो ' तनहा '
हर फ़साने को हक़ीक़त नहीं कहते ।
1 टिप्पणी:
बहुत खूब
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