मार्च 20, 2023

सफ़र साहित्य की डगर पर मुसाफ़िर का ( मेरी दास्तां ) डॉ लोक सेतिया

 सफ़र साहित्य की डगर पर मुसाफ़िर का ( मेरी दास्तां ) डॉ लोक सेतिया 

शुरुआत कुछ रचनाओं से करता हूं जो मुझसे परिचित ही नहीं करवाती बल्कि मेरा सही परिचय हैं अपनी पहचान को और कोई निशानी मेरे पास नहीं है । 

 1        दोस्त की तलाश  

 

ये सबने कहा अपना नहीं कोई
फिर भी कुछ दोस्त बनाए हमने ।
 
फूल उनको समझ कर चले कांटों पर
ज़ख्म ऐसे भी कभी खाए हमने ।
 
यूं तो नग्में थे मुहब्बत के भी
ग़म के नग्मात ही गाए हमने ।

रोये हैं वो हाल हमारा सुनकर
जिनसे दुःख दर्द छिपाए  हमने ।

ऐसा इक बार नहीं , हुआ सौ बार
खुद ही भेजे ख़त पाए  हमने ।

उसने ही रोज़ लगाई ठोकर 
जिस जिस के नाज़ उठाए हमने । 

हम फिर भी रहे जहां में "तनहा"
मेले कई बार लगाए  हमने । 
 
 
2       ग़ज़ल 
 
 
फिर कोई कारवां बनाएं हम
या कोई बज़्म ही सजाएं हम ।

छेड़ने को नई सी धुन कोई
साज़ पर उंगलियां चलाएं हम ।

आमदो - रफ्त होगी लोगों की
आओ इक रास्ता बनाएं हम ।

ये जो पत्थर बरस गये  इतने
क्यों न मिल कर इन्हें हटाएं हम ।

है अगर मोतियों की हमको तलाश
गहरे सागर में डूब जाएं हम ।

दर- ब- दर करके दिल से शैतां को
इस मकां में खुदा बसाएं हम ।

हुस्न में कम नहीं हैं कांटे भी
कैक्टस सहन में सजाएं हम ।

हम जहां से चले वहीं पहुंचे
अपनी मंजिल यहीं बनाएं हम ।
 

  3        दीप जलता ही रहा ( गीत ) 

 

आंधियां चलती रहीं , दीप जलता ही रहा ।

ज़िंदगी के फासले कम कभी हो न सके 
दर्द तो मिलते रहे हम मगर रो न सके
ग़म से पैमाना भरा जब न खाली हो सका
वो समंदर बन गया बस उछलता ही रहा ।
आंधियां चलती ........................

पूछते सब से रहे आपका हम तो पता
है हमारा ख्वाब कोई तो देता ये बता
छोड़ कर हम कारवां आ गए खुद ही यहां
इक सफ़र था ज़िंदगी जो कि चलता ही रहा ।
आंधियां चलती ...........................

जब किसी ने साथ छोड़ा ,नहीं कुछ भी कहा
शुक्रिया आपका आपने जो भी दिया
जब भी वो देता रहा जाम भर भर के हमें
जाम हाथों से मेरे बस फिसलता ही रहा ।
आंधियां चलती ............................

पास हमको लोग सारे बुलाते तो रहे
और हम रस्मे वफा कुछ निभाते तो रहे
दिल हमारा तोड़ डाला किसी ने जब भी
आंसुओं का एक सागर निकलता ही रहा ।
आंधियां चलती रहीं ,दीप जलता ही रहा ।

( मेरे दोस्त जवाहर लाल ठक्क्र जी ने मिसरा दिया था गीत का । )
 

4     दोहे   ( देश की वास्तविकता पर ) 

 

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान ।  
 

   5           बेचैनी ( नज़्म )  

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास । 
 
 
  मैं इक ख़्वाब देखता था , कहीं कोई ऐसी दुनिया जहां प्यार दोस्ती और अपनापन हो , इक ऐसा घर कोई गांव कोई ठिकाना जहां सब बराबर हों छोटा बड़ा कोई नहीं हो , जिस में कोई ऊंच नीच की दीवार नहीं हो और हर किसी के मन की खिड़की खुली रहती हो । आपस में कहना कुछ दिल में रखना कुछ और जैसा कोई मुखौटा किसी चेहरे पर कभी नहीं रहे । दोस्ती का इक मंदिर जिस में समाज की भलाई की सामाजिक बुराईयों को मिटाने की सिर्फ बात नहीं कोशिश भी हो बदलाव करने की । समझाया था ज़माने ने कि पूरी कायनात में कहीं कोई ऐसा जहां नहीं है मगर मुझे तलाश करना था कितने भंवर कितने तूफां से टकराना था उस पार जाना था जहां मेरे सपनों का जहां है । मेरे माझी ने पतवार फैंक दी थी घबरा कर तब भी मैंने कह दिया था मेरे माझी हो तुम लगाओ पार या चाहे डुबो दो भंवर में ये नहीं कहो कि उस पार कुछ नहीं है । कह दो झूठा था वो बहाना मुझे अभी भी है उस पार जाना । 

             हम को ले डूबे ज़माने वाले         ,   नाख़ुदा खुद को बताने वाले । 

याद नहीं कैसे कैसे कितनी बार कितने लोगों को मिल कर घर बुलाकर उनके पास जाकर साथ देने इक कारवां बनाने की चर्चा की और बहुत बार कारवां बनाए भी । लोग मिलते बिछुड़ते रहे कुछ मज़बूर थे कुछ मगरूर थे कुछ अपनी मस्ती में चूर थे करीब होकर भी मुझसे खुद अपने आप से बहुत दूर थे । हम जहां से चलते घूम फिर कर वहीं पहुंचते ये हालात थे जो मुझको नहीं होते मंज़ूर थे । लोग सभी लाजवाब थे बड़े ही कमाल थे बस उन सभी के वही कुछ सवाल थे कहने को मालामाल थे फिर भी बेहाल थे जाने किस किस से क्या क्या मलाल थे । सबको किसी मंज़िल की चाह थी कठिन बड़ी ये राह थी , हम नई राह बनाते रहे रास्ते से पत्थर हटाते रहे कुछ फूल राहों में खिलाते रहे पर लोग समझदार बन किसी मोड़ से मुड़ जाते रहे । कहा यही इक तपता रेगिस्तान है तुम मृगतृष्णा के शिकार हो तुम किसी काम के नहीं आदमी बेकार हो । 
 
कोई किसी सड़क पर चला गया कोई राष्ट्रीय महामार्ग की तरफ गया मैं अपनी गांव की पगडंडी पर बढ़ता रहा कभी थक कर आराम किया बैठा किसी पेड़ की छांव में फिर हौंसला कर चल पड़ा चलता रहा चलता ही जा रहा हूं । मेरे सफर के कुछ हमसफ़र अभी भी अक़्सर मुझसे पूछते हैं मंज़िल अपनी का कोई पता और मैं समझा नहीं पाता कि मुझे रास्तों से प्यार है मंज़िल की चाह नहीं है बस ख़्वाब है जिस को हक़ीक़त में बदलना है सबको सबसे मिलवाना है खुद को भी समझाना है सभी अपने हैं यहां नहीं कोई बेगाना है । आज भी आपसे हर किसी से जिसको दोस्ती प्यार इंसानियत की खूबसूरत दुनिया की आरज़ू है मेरा यही कहना है कि इस पैग़ाम को समझना और समझाना , घर दोस्तों के दूर नहीं होते , आना चाहो जब भी चले आना । ख़ाली है अभी इस दिल का ठिकाना । 
 

 
 

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