मुन्नाभाई को आदर्श बना लिया है ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया
दिल को बहलाने को वक़्त बिताने को ग़म को छुपा कर मुस्कराने को खेल तमाशा देखना दिखलाना ठीक बात हो सकती है लेकिन जनता के दर्द को समस्याओं को सुलझाने की जगह दिखावा करने को तमाशा करना ज़ुल्म की इंतिहा है । सरकार का काम लोकतंत्र के शासन में खेल तमाशे करना नहीं ईमानदारी निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना होना चाहिए मगर अफ़सोस है सत्ता पर चयन होने निर्वाचित होने या नियुक्त होने पर जो शपथ उठाई जाती है निभाई नहीं जाती अन्यथा समस्याओं का समाधान होना असंभव नहीं था । भेड़चाल की तरह देश की सरकार से राज्य की सरकारों विभागों एवं अन्य संगठनों संस्थाओं ने मुन्नाभाई को आदर्श बना लिया है और रोगग्रस्त समाज को उपचार की जगह जादू की झप्पी से लेकर मरने से पहले आखिरी आरज़ू पूरी करने को अस्पताल में अर्धनग्न नर्तकी का नाच गाना करवाया जाता है और विडंबना देखिए दर्शक से फ़िल्मी भर्ती रोगी तक किसी की मौत पर तमाशा देख तालियां बजाते हैं । लेकिन राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी शायद भूल रहे हैं कि नाटक में किरदार वास्तव में नहीं मरता जबकि यहां आपकी व्यवस्था की बदहाली से लोग रोज़ बेमौत मरते हैं । जब कोई अधिकारी कानून व्यवस्था की नाकामी पर कोई आडंबर करता है जनता को दिखाने को समारोह की तरह आयोजित करता है विभाग को मुस्तैद करने का तमाशा शहर भर में मीडिया में दिखाने को तब अपराधी खलनायक की अट्ठास करते हैं और जिनको दर्द हुआ उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का कार्य होता है । ऐसा कोई नेक दिल इंसान नहीं कर सकता और वही कर सकता है जिसका विवेक उसको रोकता नहीं गंभीर समस्या को उपहास बनाकर झंडी दिखा कर जुलूस की तरह परेड करवाने का खेल करने से ।
शासक बनते ही भला चंगा आदमी कैसे बदल जाता है और कर्तव्य निभाना भुलाकर अपने पद का उपयोग अधिकारों की लाठी से बेहरम बन सामान्य नागरिक को डराने धमकाने और शोषण करने लगता है जबकि ख़ास वर्ग धनवान रसूखदार लोगों से दोस्ती निभाता है उनको मनमानी करने की आज़ादी देता है । देश क्या सच इस तरह से आज़ाद है कि कुछ मुट्ठी भर लोग मनमर्ज़ी कर सकते हैं बाक़ी जनता बेबस लाचार ज़ुल्म सहकर ज़ालिमों से गुहार लगाती है दया रहम की भीख याचक बन कर मांगती खड़ी उनके दरवाज़े पर । जनता से नेता अधिकारी ऐसे पेश आते हैं जैसे कोई मुजरिम बिना अपराध क्षमा की विनती करता है । जो नियम कानून देश की जनता की भलाई नहीं करते बल्कि उनका जीना मुश्किल करते हैं उनको बदला हटाया जाना चाहिए था लेकिन यहां हर शासक सत्ता मिलते ही और तानाशाही करने की खातिर अपनी साहूलियत से कानूनों को सख्त बनाता जनता पर थोपने को और शासक वर्ग धनवान सुविधा संपन्न लोगों से भाईचारा निभाते हुए उनके लिए हर कायदा कानून लचीला मुलायम और जब चाहे तोड़ने की राह बनाता है ।
कहीं पढ़ा था कुछ लोग रोमंच और आनंद महसूस करते हैं किसी को तड़पता रोता बिलखता देख कर जबकि कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जिनको ज़ुल्म सहने की आदत पड़ जाती है और समय गुज़रते उनको अपने दर्द से भी लगाव हो जाता है । आशिक़ी मुहब्बत की बात और है लेकिन न्यायपालिका कार्यपालिका निष्ठुर और असंवेदनशील हों तो समाज और इंसानियत पर खतरा मंडराने लगता है । डॉक्टर अगर मरीज़ की व्यथा सुनता नहीं तो रोग ठीक नहीं हो सकता और बढ़ता ही जाता है । 75 साल से देश की जनता ही नहीं बल्कि संविधान तक से यही होता रहा है । कुछ लोगों ने सत्ता धन और शोहरत ताकत हासिल करने के मकसद से संसद संविधान अन्य संस्थानों को असाध्य रोग का बीमार बना दिया है । लाशों पर खड़े होकर हंसने वाले क्या कहलाते हैं जानते हैं सभी । सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवाल इक चिंता का विषय यही है कि फिल्म का मुन्नाभाई खुद को समाजसेवक समझता था जबकि था इक गुंडा मवाली जिस को हमने नायक समझ लिया । लेकिन भूल गए उसका अस्पताल फ़र्ज़ी था रोगी भी फ़र्ज़ी थे वास्तव में बीमार नहीं थे । जबकि यहां फ़र्ज़ी डॉक्टर की तरह खुद को देश समाज जनता का सेवक कहने वाले शासक असली समस्याओं को उपहास समझने लगे हैं । उनकी समस्या सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ ऐशो-आराम और शासकीय अधिकार शानदार राजसी जीवन की आकांक्षा ही है ।
मुहब्बत ही न जो समझे वो ज़ालिम प्यार क्या जाने ,
किसी फ़िल्म में महबूबा पर लिखी ग़ज़ल मौजूदा समय के हालात में सरकार पर खरी लगती है ।
उसे तो क़त्ल करना और तड़पाना ही आता है , गला किस का कटा क्योंकर कटा तलवार क्या जाने ।
1 टिप्पणी:
बहुत सही विचार व्यक्त किये हैं सर👌👍
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