ज़िंदा हैं मर कर भी लोग ( ग़ज़ब की बात ) डॉ लोक सेतिया
बड़े बड़े दार्शनिक बड़े बड़े संत महात्मा आदर्शवादी समाज सुधारक समझाते रहे मर के भी अमर अजर होने को अच्छे अच्छे कर्म करने चाहिएं अच्छाई सच्चाई की राह चलना चाहिए मगर हम ज़िंदा होकर भी मरे जैसे बेज़मीर लोग बन कर सालों की गिनती बढ़ाते रहे। वास्तव में जीना ऐसा था बल्कि है जीते हैं जैसे कोई चलती फिरती लाश हैं। वास्तविक जीवन कठिन लगता है तभी हमने इक झूठा सपने जैसा जीवन जीना सीख लिया है व्हाट्सएप्प फेसबुक पर ज़िंदा हैं कुछ लोग दुनिया से अलविदा होने के बाद भी और हमने देखा कुछ दिन बंद किया सोशल मीडिया पर खाता तो लोग समझने लगे जाने ज़िंदा भी हैं कि नहीं। यही ग़ज़ब की बात है आपकी ज़िंदगी की खबर से महत्वपूर्ण लगती है मौत की खबर। दोस्त तो दोस्त दुश्मन भी चाहते हैं तारीफ़ करना फूल चढ़ाना भूलकर दिल की रंजिशें। कभी कभी समझते हैं चार दिन की ज़िंदगी हज़ार झगड़े झमेले किसलिए काश हंसते बोलते मिलते प्यार मुहब्बत की दास्तां बनते। स्वर्ग जैसी लगती है ये काल्पनिक सोशल मीडिया की नकली दुनिया जिस में सभी कुछ है और सबके लिए है शुभकामनाएं भगवान की भक्ति से लेकर आपको मार्गदर्शन देने वाली बातें कथाएं कहानियां। लगता है किसी को किसी से कोई बैर नफरत जलन नहीं है हर कोई सबकी भलाई अच्छाई की चाहत रखता है।
वास्तविक ज़िंदगी में आपने क्या किया क्यों किया उसका हिसाब कहीं कोई नहीं लिखता है लेकिन अपने सोशल मीडिया पर खूब अपना सिक्का जमाया है सबको वही सच लगता है। समस्या विकट है हम लाख कोशिश कर असली ज़िंदगी में उस तरह बन नहीं सकते हैं। जानते हैं ये सब बेकार किताबी बातें हैं और किताबों को पढ़ना नहीं उनको अलमारी में सजाकर रखते हैं कोई दिन होता है जिस दिन उनको झाड़ पौंछ कर माथा टेकते हैं। जब हमने मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे को भी घंटा बजाने माथा टेकने मोमबत्ती जलाने आरती अरदास पूजा ईबादत करने की जगह समझ लिया है चिंतन मनन करने की जगह कोई नहीं सिर्फ रटी रटाई बात वही औपचारिकता निभाते हैं हर दिन ऐसे में सोशल मीडिया की बातों का असर ख़ाक होगा। शायद हमने स्वर्ग तलाश कर लिया है अनजाने में जन्नत का सुख अनुभव करते हैं परियां हैं बहार है कितनी रौशनी है। लेकिन हम किसी गहरी नींद में सोये हुए दिलकश ख़्वाब देखते रहते हैं नींद खुलने से डरते हैं कहीं हक़ीक़त सामने आकर खड़ी नहीं हो जाए। चिट्ठी नहीं आती मगर संदेश आते हैं स्वर्ग की दुनिया है स्मार्ट फोन की हमारी दुनिया जिस में सांसों की नहीं इंटरनेट डॉटा की ज़रूरत पड़ती है। क्षण भर में जान मुश्किल में पड़ जाती है। सोशल मीडिया की ज़िंदगी में हमसे असली जीने का मज़ा छीन लिया है बात इतनी नहीं हमने अपनी झूठी पहचान बनाने में असली पहचान खो दी है। दुनिया क्या हम खुद से भी अजनबी हैं अपने चेहरे को देखते हैं तो लगता है आईने में कोई और अक्स है हमारी कितनी खूबसूरत डीपी है।
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