कुछ करना था कुछ कर बैठे ( सच के दर्पण में ) डॉ लोक सेतिया
ढूंढने से जो नहीं मिला जीवन भर अचानक सामने खड़ा दिखाई दिया कहीं ये कोई ख़्वाब तो नहीं। नहीं ये सपना नहीं हक़ीक़त सामने नज़र आई मुझे बिल्कुल शीशे की तरह साफ जिसको तलाश किया इधर उधर मिला भी तो खुद अपने पास और इतना पास कि कोई फ़ासला नहीं था दोनों में ज़रा भी। मैंने चाहा उस से पूछना बहुत कुछ कितने सवाल मन में उठते रहे ज़िंदगी भर मगर कुछ भी कहने से पहले उसने सब कुछ बता दिया जैसे किसी परीक्षा में हर सवाल का जवाब लिखा हुआ हो। आधुनिक समय में होता है आपको सही और गलत का निशान लगाना होता है झट से पहले से दिए कॉलम में। पर यहां सोचने की ज़रूरत नहीं थी सही का निशान लगा हुआ था जैसे ऐसा गलत है साफ बताया हुआ था। आपको समझने में आसानी हो इसलिए आपको तमाम उलझनों समस्याओं परेशानियों चिंताओं का कारण भी समाधान भी बता देता हूं बस आपको हां या नहीं सच या झूठ जो उचित लगता है बोलना है खुद से खुद ही बात करनी है। आत्मचिंतन उसी तरह है जैसे हम आप अपनी मन की बात सोशल मीडिया पर लिखते हैं सोचते हैं लोग नासमझ हैं उनको समझाना ज़रूरी है खुद कभी नहीं समझा क्या समझना क्या समझाना है। ध्यान से पढ़ना खुली किताब को बिना समझे पन्ने नहीं पलटते जाना जैसे साल बढ़ते गए संख्या बढ़ी हम वहीँ रहे जहां थे।
क्या कुछ भी वास्तव में उस तरह का है जैसा होना चाहिए दुनिया में सब कुछ जैसा है कोई नहीं मानता कि बढ़िया है। लेकिन हम जिस चीज़ को अच्छा नहीं समझते बदलते रहते हैं अपने खुद की खातिर घर वाहन साज़ो-सामान खराब छोड़ बेहतर चुनते हैं हासिल करते रहते हैं। लेकिन जिस दुनिया में रहना है उसको अच्छा और सुंदर बनाने की जगह और भी खराब करते रहते हैं। किसी और ने नहीं हमने बर्बाद किया है इस कभी बड़ी खूबसूरत रही दुनिया को और कैसा बनाया है जैसा बनाना कदापि नहीं था। सरकार राजनेता अधिकारी न्यायपालिका पुलिस सुरक्षा शिक्षा स्वास्थ्य सेवा यहां तक कि धर्म भगवान समाजसेवा तक सभी जैसा होने चाहिएं उस के उल्ट हैं। धन दौलत शोहरत सुख सुविधा के पीछे भागते रहते हैं इक रेगिस्तान में मृगतृष्णा की तरह चमकती रेत को पानी समझ और मर जाते हैं प्यास से। प्यास बुझ सकती थी अथाह सागर था पास हमने जिसको देखा नहीं मुहब्बत इंसानियत और दोस्ती अपनेपन को छोड़ खुदगर्ज़ी को मकसद बना लिया है।
कोई रिश्ता कोई संबंध सच्चा और निस्वार्थ नहीं बनाया है हमने सब को खराब किया है जो नहीं भाया उसको भी संवारा नहीं मिटाना चाहा है। बनाना नहीं सीखा बने बनाये को ख़त्म करना यही किया है। विधाता जो चाहता है हमने उसके विपरीत किया है मनमानी की है और विधि से मिला जो हम नहीं चाहते थे। जिस दिन अपनी मर्ज़ी छोड़ विधाता की मर्ज़ी को समझ सही आचरण करने लगे बदले में जिसकी हमको चाहत है विधाता वही देगा। बस हम उस से होड़ लगा बैठे हैं जिस के सामने अपना कोई बस नहीं चलता और बेबस हैं। हम खुद को नहीं बदलते विधाता को उसकी दुनिया को बदलना चाहते हैं। मगर किया क्या है दुनिया बनाने वाले की हर चीज़ को हमने चाहा है अपनी मर्ज़ी की बनाने को बदलने में जैसा था उस से खराब किया है। शायद ध्यानपूर्वक देखना होगा क्या ये सब जैसा होना चाहिए उसके उल्ट नहीं है जैसे सफ़ेद और काला रंग। लेकिन हमने कालिख़ को दाग़ को छुपाने को सब कुछ काले रंग में रंग दिया है। इतना ही नहीं हम काले रंग झूठ आडंबर और सभी गलत बातों को स्वीकार कर अपना लिया है। राह ही गलत चलते रहे हैं तो जिस मंज़िल की चाह थी मिलती कैसे और हम अपनी खूबसूरत मंज़िल से इतना दूर होते गए हैं कि हमारी राहें भी खो गई हैं।
सामने सच खड़ा हुआ है सच ही ईश्वर है और सच के दर्पण में सब कुछ दिखाई दिया है। कुछ करना था कुछ कर बैठे। ज़िंदगी का घड़ा भरता नहीं है जितना पानी डालते हैं रिसता जाता है जीवन को बहते दरिया की तरह बनाते तो प्यास बुझाते सबकी कुछ फूल खिलाते इक गुलशन था ये दुनिया इसको बर्बाद नहीं करते बचाते सजाते और सब पाने से अच्छा था कुछ दे कर जाते।
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