ज़िंदगी से पहचान हुई ( फ़लसफ़ा ) डॉ लोक सेतिया
याद
करना अच्छी बुरी मीठी कड़वी बातों को पुराने अनुभवों को और बात है ज़िंदगी
का रोना धोना सभी करते हैं। कभी ज़िंदगी को समझना जान पहचान करना उसको प्यार
करना चाहे जैसी भी रही हो बड़े ही तथस्ट भाव से आंकलन करना बहुत ज़रूरी है
जो कभी नहीं किया अब कर के देखते हैं। आज रात सपने में मिला खुद से अपनी
ज़िंदगी से इधर उधर उस से अकेले में सबसे छुपकर बात कहना चाहता था मगर कभी
कोई कभी कोई आस पास दिखाई देता। दिल की बात सभी के सामने की जाती नहीं है
अवसर मिलते ही पूछ लिया क्या मुझे चाहती हो लगा मुस्कुराई ज़िंदगी जैसे कह
रही हो सवाल ये नहीं है सवाल होना चाहिए क्या तुम खुद को अपनी ज़िंदगी को
चाहते हो मुझे प्यार करते हो। पल भर में बिना इक शब्द बोले उसने मुझे किसी
फ़िल्मी फ्लैशबैक की तरह पिछली ज़िंदगी को दिखला दिया। और मैं अभी तक समझने
की कोशिश कर रहा हूं अपनी ज़िंदगी के बीते हुए सफर की खुद अपनी कहानी जो
जाने कैसे कोई लिखवाता रहा मेरे ही हाथ से मेरी कलम से। जैसे स्कूल में
बच्चे अध्यापक जो बोलता है लिखते हैं अपनी नोटबुक पर याद रखने को। विधाता
हालात और जाने क्या क्या मुझे जब जिधर चाहते उधर ले जाते रहे और मुझे लगता
रहा मैं अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी का सफर तय कर रहा हूं। शायद अब तक
फुर्सत नहीं मिली थी मुझे अपनी ज़िंदगी से पहचान करने की भी मुहब्बत करने से
पहले जान पहचान होना ज़रूरी है।
चलता
रहा लगातार चलना पड़ता है मगर थोड़ा रुककर ठहरकर ज़िंदगी से पहचान करने के
बाद उसको भी बात समझ कर हमराह बनाकर चलना था अकेले अकेले नदी के दो किनारों
की तरह नहीं। अब समझ आया ज़िंदगी मुझसे फ़ासला रखकर क्यों चलती रही हमेशा।
लंबा रास्ता मंज़िल का कोई पता नहीं और सभी दुनिया के लोग चलते रहते हैं
कारवां साथ लिए फिर भी अकेले अकेले। किसी से क्या खुद से भी दूरी रखकर।
सोचते सोचते लगने लगा है राह में कभी फूल खिले कभी पतझड़ आई कभी ठंडी हवा
कभी तपती लू कभी गुलशन कभी वीराना कभी आसान रास्ते कभी कठिन डगर कभी कोई
पगडंडी कभी किसी के कदमों के निशां तक नहीं जिन पत्थरीली चट्टानों पर
मुश्किल से चढ़ना। ये सब वास्तव में ज़िंदगी के नज़ारे थे कितने रंगीन क्या
क्या रंग नहीं थे। मैंने ही उन सभी से तालमेल नहीं बिठाया उनको स्वीकार
नहीं किया और नाहक चिंता दुविधा और हैरानी से बचने की चाहत करता रहा।
ज़िंदगी होती ऐसी ही है हम चाहें या नहीं चाहें ज़िंदगी एक जैसी कभी नहीं
रहती है ज़िंदगी पल पल बदलने का नाम है। जब जैसी जिस रंग की है उसे जीना उस
से पहचान करना अपनाना यही ज़िंदगी जीने का सलीका है।
अभी
हम ने ज़िंदगी को जिया मगर जीने का ढंग नहीं सीखा है। ज़िंदगी को हमने उसकी
मर्ज़ी से नहीं खुद अपनी ज़रूरत को देख कर बदलना चाहा है जो हमारी उलझन का
कारण है। जीने का अगर अंदाज़ आये तो बड़ी हसीं है ये ज़िंदगी। ज़िंदगी शीर्षक से कितनी कविताएं कहानियां ग़ज़ल गीत हैं लिखा भी पढ़ा भी बहुत है समझा नहीं समझ पाया नहीं अन्यथा ज़िंदगी लघुकथा ही तो है। घर समाज दुनिया नाते रिश्ते सभी जाने क्या क्या शिक्षा जानकारी दुनियादारी और तौर तरीके बताते हैं समझाते हैं स्कूल कॉलेज की पढ़ाई से सबक लेते हैं नौकरी कारोबार सब कुछ करने की जानकारी हासिल करने को किताबें पढ़ते हैं। ज़िंदगी क्या है उसको समझना और जीना क्या होता है इस की कहीं कोई चर्चा तक नहीं होती जबकि इस से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी होना नहीं चाहिए। ज़िंदगी को हमने ऐसी पहेली समझ लिया है जिसका जवाब कोई नहीं जानता और ये सवाल हर किसी को हल करना होता भी है।
आर्ट ऑफ़ लिविंग अर्थात जीने का सलीका कहने को कोई गुरु बन गया मगर खोजा पहाड़ निकली चुहिया वो भी मरी हुई जैसी हालत है। इसको भी नाम शोहरत दौलत रुतबा पाने का ज़रिया बना लिया और हर जगह अपने नाम से धंधा व्यौपार करने लगे देश विदेश शाखाएं बनवाते रहे। जिनको लगता है ये सब जीवन का मकसद है उनको ज़िंदगी का सच मालूम ही नहीं और जो आपके पास खुद है ही नहीं वो कैसे किसी और को बांटते फिरते हैं। ज़िंदगी से ऐसा खेल खेलना अच्छा नहीं है आपको कारोबार करने को यही समझ आया जो दौलत के तराज़ू में हर्गिज़ नहीं तोलना चाहिए उसको सिक्कों से तोलने लगे ज़िंदगी को सामान बना दिया बाज़ार में बेचने को। इस से अच्छा होता हवा को भरकर गुब्बारे बनाते बेचने को।
ज़िंदगी से जान पहचान हुई भी तो इतनी देर से मगर शायद अभी भी जीने का सलीका समझ कर जितनी बची है उस ज़िंदगी को ढंग से जीना छोटी बात नहीं है। क्योंकि ज़िंदगी को सालों से नहीं नापनी चाहिए। ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं बाबू मोशाय , गुलज़ार ने लिखा था ये डायलॉग आनंद फिल्म के लिए। कुछ और गीत हैं ज़िंदगी को परिभाषित करने के लिए। किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है। ज़िंदगी इक सफर है सुहाना , मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया , ज़िंदगी मेरे घर आना , तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूं तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं , ज़िंदगी गले लगा ले। जीवन चलने का नाम , चलते रहो सुबह शाम। ग़ज़ल भी तमाम हैं मगर मुझे जनाब जाँनिसार अख़्तर जी की कही ग़ज़ल बहुत पसंद है , ज़िंदगी ये तो नहीं तुझको संवारा ही न हो कुछ न कुछ हमने तेरा क़र्ज़ उतारा ही न हो। दिल को छू जाती है यूं रात की आवाज़ कभी , चौंक उठता हूं कहीं तूने पुकारा ही न हो। ज़िंदगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको , दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो। शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहां , न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो।
ज़िंदगी को जीने का फ़लसफ़ा यही है हाथ पसारने मांगने का नहीं मुमकिन है तो जितना भी बांट सको बांटने का नाम ही जीवन है दुनिया को देश को समाज को कुछ दे कर जाना अच्छा है। प्यार से बड़ी दौलत कोई नहीं है मुहब्बत पाना है तो सच्चा प्यार बांटना सीखना होगा इंसान को इंसान बनकर आपस में प्यार मुहब्बत से रहना , ज़िंदगी जीने का यही तरीका है सलीका भी यही है। प्यार ही ऐसी दौलत है जो जितनी बांटते हैं उतनी बढ़ती जाती है। आखिर में इक गीत चल अकेला चल अकेला चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला।
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