सार्थक लेखन किसको कहते हैं ( 1000 वीं पोस्ट ) डॉ लोक सेतिया
इक मोड़ पर आकर आपको विचार करना चाहिए आपकी मंज़िल आपका रास्ता आपका मकसद क्या है , किस उद्देश्य से चले थे कहां से किधर जाने को और अब किस जगह खड़े हैं। नव वर्ष जन्म दिन अथवा कोई भी मील का पत्थर यही याद दिलाता है कि रुक कर सोचो किया क्या हुआ क्या करना क्या अभी आगे है। इसलिए आज ब्लॉग की हज़ारवीं पोस्ट लिखते समय मुझे इस विषय का विचार मन में आया है। माना जाता है कि लिखने वाले समाज को बदलना चाहते हैं इसलिए समाज के सामने उसकी वास्तविकता का आईना दिखाते हैं और मकसद होता है इक बेहतर समाज का निर्माण करना। शायद हर लिखने वाले को इस लेखन धर्म की पहली बात को हमेशा याद रखना चाहिए। मेरे भीतर का लेखक इक ऐसा समाज बनाना चाहता है जिस में कोई बड़ा छोटा नहीं हो कोई ताकतवर कमज़ोर नहीं हो कोई बहुत अमीर और कोई भूखा नंगा नहीं हो। किसी पर कोई अत्याचार नहीं करता हो किसी का कोई शोषण नहीं करता हो। आपस में छल कपट नहीं हो इंसानियत का पास हो मेलजोल हो भाईचारा हो एक दूसरे का साथ देते हों कमज़ोर को सहारा देते हों लोग। बैर दुश्मनी नफरत नहीं हो प्यार मुहब्बत से मिलकर रहते हों। हर कोई अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाता हो और जितना समाज से मिलता है उस से बढ़कर समाज को देना चाहता हो। मेरी तरह तमाम लिखने वालों का इक सपनों का जहान होता है और जो भी अनुचित वास्तविक समाज में होता है उसको स्वीकार नहीं करना चाहते और बदलने को लगे रहते हैं। कभी कभी इक दौर निराशा का भी आता है जब लगता है इतने सब करते रहने के बाद बदला कितना और क्या ये व्यर्थ चला गया , क्या इसका कोई हासिल नहीं है। ऐसा इक बार हुआ और मैंने सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ जी को अपनी बात लिख कर पूछा था और उन्होंने मुझे खत का जवाब खत भेजकर समझाया था। उन्होंने लिखा था जब पहाड़ों से कोई नदी निकलती है तब उसकी पानी की रफ़्तार इतनी तेज़ होती है कि सामने आने वाले पत्थर को रेत बना देती है। कोई देखने वाला कह सकता है पानी बहता रहा और राह रोकने वाला पत्थर खत्म हो गया , मगर ऐसा नहीं है। वास्तव में ऐसी हर रुकावट ऐसे अवरोध से पानी की गति घटती जाती है और जो पानी तेज़ बहाव से ज़मीन को कटाव लेकर विनाश कर सकता था सामने आने वाले को नष्ट करता था उसी का वेग इतना कम हो जाता है कि हम सिंचाई और पीने को उपयोग कर सकते हैं। इसलिए बेशक कोई कहता रहे आपके लिखने से बदला नहीं कुछ मगर उसका असर हुआ है आपको समझना चाहिए कि अगर हम विरोध नहीं करते तो जो अनुचित होता है और भी अधिक बढ़ चुका होता अभी तक।
साहित्य की किताब धर्म की किताब अथवा अन्य तमाम तरह से जानकारी देने और शिक्षा की किताबों को अगर विचार करें तो मुख्य दो लक्ष्य लिखने वालों के हो सकते है , पहला अपनी बात कहने को या किसी की महिमा का गुणगान कर खुश कर कोई लाभ नाम शोहरत हासिल करने को , और दूसरा लोकहित को ध्यान में रखकर सच और झूठ का अंतर समझने और मार्गदर्शन करने को। अब अगर बिना किसी धर्म या किसी धर्म की किताब का नाम लिए बात करें तो धर्म की किताब लिखने वाले का मकसद धर्म की स्थापना करना भी हो सकता था और किसी की बढ़ाई करना भी। लेकिन हमने धर्म की किताबों को आदर्श माना तो मकसद यही था कि उसकी दिखाई राह पर चलकर समाज को सही मार्ग पर चलने की बात करना। मगर जब कोई धर्म की किताब दीन दुखियों की सेवा की बात करती हो और धन संचय नहीं करने को समझाती हो तब उसके उपदेश देने वाले खुद संचय करने लगें और धर्म के नाम पर इमारतें भवन और सुख संपदा जमा करने लगें तो उस किताब से सबक सीखा क्या है। धर्म कोई भी नफरत करने को नहीं कहता है सबको गले लगाने को कहता है फिर ये कौन लोग हैं जो धर्म की आड़ लेकर नफरत और दंगे करने की सोच रखते हैं। मतलब साफ है कि ऐसे लोगों को धर्मं से कोई सरोकार नहीं है और धर्म का मुखौटा पहन कर पाप की राह चलते हैं या अपने स्वार्थ का कोई कारोबार करते हैं। किसी धर्मगुरु ने कोई दुकान नहीं खोली थी कोई कारोबार नहीं किया था कोई धन संपदा का अंबार जमा नहीं किया था। जब भी किसी तथाकथित धार्मिक स्थल पर वास्तविक धार्मिक आचरण की बात नहीं हो और कोई और रास्ता बताया जाता हो तब समझ लेना चाहिए धर्म नहीं उनका धंधा है। क्षमा करें किसी भी किताब की लिखी हुई बात को पढ़ने सुनने से कोई लाभ नहीं है वास्तविक फायदा उस को समझ उस पर अमल करने से है। जब कोई आपको उपदेश देता है मगर ये नहीं बताता है कि इसको पढ़ना सुनना नहीं इस पर अमल कर सच की राह पर चलना ज़रूरी है तब समझ लेना चाहिए उसका मकसद आपका कल्याण नहीं खुद अपना कारोबार करना है। आज हर तरफ यही दिखाई देता है तभी धर्म की बात का शोर हर तरफ है और पाप है कि बढ़ते ही जा रहे हैं। धर्म नहीं धर्म का दिखावा इक आडंबर करते हैं हम।
आधुनिक काल में लेखन के संदर्भ में चिंतन किया जाये तो हर लिखने वाला दो ही कारण से लेखनकर्म करता है। पहला अपने नाम शोहरत धन ईनाम पुरुस्कार के लिए और दूसरा समाज और देश को सच बताने दिखाने के लिए। लेकिन क्या हम केवल कहीं कुछ गलत है उसको दिखलाने की बात करें या कि उसको ठीक करने को भी कोशिश करनी चाहिए। इस को अन्यथा नहीं लें तो लगता है अधिकांश लिखने वाले समाज से अधिक खुद अपने लिए लिखने का काम करते हैं। कितनी किताबें कितने ईनाम क्या क्या पदक इक अंधी दौड़ में भागते नज़र आते हैं और इस बीच वास्तविक मकसद जाने कब भूल जाता है या छूट जाता है। चले थे हरिभजन को ओटन लगे कपास की उक्ति चरित्रार्थ होती है। मुझे लगता है मेरा काम है कर्तव्य है लिखना और निडर होकर निस्वार्थ निष्पक्ष और सच लिखना। तर्क कुतर्क से झूठ को सच साबित करने की महारत जिनको आती है उनको उनकी काबलियत मुबारिक। इक और चलन सोशल मीडिया पर बहुत देखने को मिलता है , खुद नहीं लिखते किसी के लिखे को अपने नाम से लिखते हैं। जो आपका खुद का लिखा नहीं है किसी से भी लिया है या लिखवाया है उसको अपना बताना खुद से भी धोखा करना है। कहने को बहुत बातें हैं मगर आज इतना ही , फिर से चिंतन करना है अपने लेखकीय सफर को लेकर।
धन्यवाद सभी पढ़कों का ।
2 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 11/01/2019 की बुलेटिन, " ५३ वर्षों बाद भी रहस्यों में घिरी लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सच में यथार्थ चिंतन देता लेख सार्थकता की कसौटी पर खरा।
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