जनवरी 26, 2019

साहित्य की दुनिया का चेहरा ( खरा सच ) डॉ लोक सेतिया ( पहला भाग )

     साहित्य की दुनिया का चेहरा ( खरा सच )  डॉ लोक सेतिया

                                         पहला भाग

       साहित्य की दुनिया का गगन बहुत फैला हुआ है , किताबों की दुनिया कविता कहानी ग़ज़ल से आगे भी इतिहास और समाज धर्म जीवनियां चालीसे लिखने तक जाने क्या क्या शामिल है। लिखने वाले फ़िल्मी बकवास बेसिर पैर की टीवी सीरियल की कहानी ही नहीं झूठे सच्चे इश्तिहार तक लिखने का काम करते हैं। और इस सब में उनका महत्व लिखने वालों से अधिक है जो छापने का काम करते हैं। जिनके लिए लिखना कमाई करने का इक साधन है और जो इसे कारोबार की तरह करते हैं उनकी बात अलग है मगर वास्तविक सृजन का कार्य करने वाले खुद को साहित्यकार कहने समझने वाले और साहित्य की सेवा का दम भरने वालों की सचाई खुद अपना चेहरा आईने में देखना है। अगर गली गली नेता बने लोग मिलते हैं और अख़बार टेलीविज़न को खबर भेजने वाले खुद को सतंभ कहने वाले रहते हैं तो हर गांव शहर में खुद को कलम का सिपाही बताने वाले भी बिना ढूंढे ही नज़र आते रहते हैं। मुझे साफ़ कहना है और ईमानदारी से स्वीकार करना है कि मैं भले लिखता रहता हूं करीब तीस चालीस साल से नियमित अख़बार मैगज़ीन ब्लॉग फेसबुक आदि पर भी और कविता ग़ज़ल कहानी व्यंग्य आलेख से जनहित की बात लिखने का काम किसी गुनहगार की तरह सरकार अधिकारियों और संस्थाओं को भेजने का किया है मगर अपने लेखन को लेकर कोई गलतफहमी मुझे नहीं रही है कि मैं बढ़िया लेखक भी हूं साहित्यकार होना तो बहुत दूर की बात है। मगर लिखना मेरा जूनून है और बिना इसके रहना मेरे लिए कठिन ही नहीं असंभव लगता है। कोई किताब नहीं छपी छपवाई अभी तक मगर मुमकिन है कभी छपवा लूं तब भी मुझे पता है जैसे अधिकांश लिखने वाले मानते हैं खुद को विलक्षण लिखने वाला मैं कभी नहीं सोच सकता क्योंकि मुझे हमेशा तमाम महान लेखकों को पढ़कर लगता है कि उनके लिखे हुए के सामने मेरा लिखा ज़रा भी ठहरता नहीं है। इक बात का दावा है कि जो लिखा अपने अनुभव से अपने शब्दों से अपने खुद के ढंग से ही लिखा है कभी किसी की नकल करना पसंद नहीं किया है। 
 
     फेसबुक पर देखता हूं हर दिन कोई अपनी किताब छपने की बात किसी ईनाम की बात कोई ख़िताब मिलने की बात बताता है। फेसबुक पर हर दिन इतना लिखा नज़र आता है कि जीवन भर पढ़ते रहो पढ़ना मुमकिन नहीं है। पढ़ता कौन है कहना कठिन है बिना पढ़े पसंद करने की रस्म निभाई जाती है इसे ही सोशल मीडिया की दोस्ती कहते हैं। फिर भी हर दिन किसी की फेसबुक पर पढ़ता हूं समझना चाहता हूं मगर इक पुराना अनुभव है इक दोस्त को कमियां बताने पर नाराज़गी का इस सीमा तक कि भाई साहब से तुम क्या कौन तक बात पहुंच गई। यकीन करें भलाई को राय देने की सज़ा अभी भी जारी है बेशक मिलते हैं हंस कर बात करते हैं दुनियादारी है। मगर कई दिन से इक बेचैनी सी थी इस विषय को लेकर कि क्या आजकल का लेखन किसी काम आता है कोई सार्थकता है इस सृजन में। समाज को बदलने आईना दिखाने को सफल है। लिखने का मकसद अगर ये नहीं किसी और मकसद से लिखा जाता है तो उसको क्या कह सकते हैं। खुद लिखना और अपने दायरे में सुनाना सुनना और इक दूसरे की तारीफ करना सामने महान लिखने वाला बताना मगर पीठ पीछे उसी को बकवास लिखा कहना जैसी बातें दिखाई देती हैं तब विचार आता है सच को सच कहना नहीं जानते जो उनसे सच लिखने की उम्मीद करना बेकार है। और जो दर्पण समाज को वास्तविक चेहरा नहीं दिखलाता हो उसको तोड़ना चाहिए या सजाना चाहिए। 
 
                     किसी का भी नाम लिए बिना समझ सकते हैं जो भी महान लिखने वाले हुए हैं चाहे किसी भी देश में किसी भी भाषा में लिखते थे उनका लेखन अमर और कालजयी बना तो इसलिए कि उस से इक संदेश मिलता है और उनकी कृतियां समय के साथ खोती नहीं हैं। आज जो लिख रहे हैं क्या बाद में उसकी कोई सार्थकता होगी उपयोगी समझा जाएगा। इक कसौटी पर खरा उतरना ज़रूरी है अन्यथा आपका लिखा समय और साधन की बर्बादी होगा। इक बेहद खेदजनक दशा ये भी है कि बेशक लोग लिख रहे हैं और छपते भी हैं मगर उनका नियमित लेखन भी उनकी आजीविका का साधन बन नहीं सका है। ये कहना कि लेखक के लिए पैसा कोई महत्व नहीं रखता और उसको अपनी बात अपने विचार व्यक्त करने से ही ख़ुशी और संतोष मिलता है वास्तविकता से नज़र चुराना है। क्या ये हैरानी की बात नहीं कि जो अख़बार मैगज़ीन वाले किताबें छापने का कारोबार करने लोग हैं उनकी रोटी रोज़ी इस काम से चलती है आराम से और साहित्य की सेवा करने का दम भरने के बावजूद लिखने वाले को नाम भर को अथवा कुछ भी नहीं देते हैं। क्या ये उचित है और जो लिखने वाला शोषण पर बेबाक लिखता है खुद शोषण का शिकार है मगर खामोश है। इस विषय पर लिखना अपराध है जो आपकी रचनाओं को छपने से रोक सकता है। मगर सच बोलने का साहस हर कीमत पर होना चाहिए। वीररस की बात लिखना और खुद वास्तव में कायरता से जीना तो खुद अपने लिखने को अपमानित करना है। 
 
                        ( बाकी बात भाग दो  में जारी है अभी लेख अधूरा है ) 

 

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