अपनी महबूबा पर कवि की कविता ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
कवि की महबूबा ने कवि से
इक दिन कहा मनुहार से कोई कविता मुझ पर लिखो
बोली पहली बार बड़े प्यार से ।
कवि उलझन में पड़ गया
सोचने लगा आज मर गया
कल तुमको सुनाऊंगा ये
वादा करके वापस घर गया ।
जब दोनों अगले दिन मिले
भूले सभी के सब थे गिले
इक बस वही तमम्ना थी
सुन प्रेमी की कविता दिल खिले ।
बोला कवि सुन मेरी सनम
आती है बहुत ही तुमको शर्म
आधी सुनाऊंगा मैं कविता तुझे
बाकी समझ लेना खा मेरी कसम ।
तब सुनाई कवि ने कविता नई
लिखे थे जिसमें हसीं के गुण कई
सुकोमल सुमधुर सुंदर बदन
ढूंढू तुम में हमेशा गुण यही ।
सुन कर सपनों में खो गई
तन मन से कवि की हो गई
कोई है मेरा भी इतना दीवाना
धरती से उड़ आकाश को वो गई ।
इक कसक रही सुनाई अधूरी
सोचा खुद पढ़ लूंगी कभी पूरी
चुपके से चुरा लाई वो डायरी
हो गया जब पढ़ना बहुत ज़रूरी ।
आगे कवि ने था लिखा प्रेमिका
जो चाहता वो ही सुनाने को लिखा
तुझमें नहीं कभी आता नज़र वो
रहता यही हरदम मैं तुममें ढूंढता ।
इक दिन चुरा कर ले जाओगी
कसम को मेरी तुम भुलाओगी
नहीं तुम्हारा खुद पर बस चलता
सच जान कर फिर पछताओगी ।
तुम क्या हो अब ये जान लो
सूरत को अपनी ज़रा पहचान लो
न चाल है न कोई सलीका हुस्न का
सच तो है इक कर्कश जाल हो ।
पर क्या करता था लिखना ज़रूरी
श्रोता होती है कवि की मज़बूरी
बस यही इक मुश्किल थी मेरी
वर्ना भाती है सबको तुमसे दूरी ।
2 टिप्पणियां:
Bhoot achi..very good sir😊
😊☺️👌👍 बहुत खूब
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