मार्च 20, 2014

अपनी महबूबा पर कवि की कविता ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

अपनी महबूबा पर कवि की कविता ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      

कवि की महबूबा ने कवि से
इक दिन कहा मनुहार से
कोई कविता मुझ पर लिखो
बोली पहली बार बड़े प्यार से ।

कवि उलझन में पड़ गया
सोचने लगा आज मर गया
कल तुमको सुनाऊंगा ये
वादा करके वापस घर गया ।

जब दोनों अगले दिन मिले
भूले सभी के सब थे गिले
इक बस वही तमम्ना थी
सुन प्रेमी की कविता दिल खिले ।

बोला कवि सुन मेरी सनम
आती है बहुत ही तुमको शर्म
आधी सुनाऊंगा मैं कविता तुझे
बाकी समझ लेना खा मेरी कसम ।

तब सुनाई कवि ने कविता नई
लिखे थे जिसमें हसीं के गुण कई
सुकोमल सुमधुर सुंदर बदन
ढूंढू तुम में हमेशा गुण यही ।

सुन कर सपनों में खो गई
तन मन से कवि की हो गई
कोई है मेरा भी इतना दीवाना
धरती से उड़ आकाश को वो गई ।

इक कसक रही सुनाई अधूरी
सोचा खुद पढ़ लूंगी कभी पूरी
चुपके से चुरा लाई वो डायरी
हो गया जब पढ़ना बहुत ज़रूरी ।

आगे कवि ने था लिखा प्रेमिका
जो चाहता वो ही सुनाने को लिखा
तुझमें नहीं कभी आता नज़र वो
रहता यही हरदम मैं तुममें ढूंढता ।

इक दिन चुरा कर ले जाओगी
कसम को मेरी तुम भुलाओगी
नहीं तुम्हारा खुद पर बस चलता
सच जान कर फिर पछताओगी ।

तुम क्या हो अब ये जान लो
सूरत को अपनी ज़रा पहचान लो
न चाल है न कोई सलीका हुस्न का
सच तो है इक कर्कश जाल हो ।

पर क्या करता था लिखना ज़रूरी
श्रोता होती है कवि की मज़बूरी
बस यही इक मुश्किल थी मेरी
वर्ना भाती है सबको तुमसे दूरी ।