नौ सौ चूहे खाकर बिळी हज को चली ( तरकश ) डा लोक सेतिया
आज अपने प्रिय अख़बार में एक साक्षात्कार पढ़ा किसी दल के नेता का। सोचा इनकी बात पढ़कर जाने कितने लोग इनके समर्थक बन जाएंगे बिना जाने कि इनकी कथनी और करनी में कितना भेद है। चलो बात शुरू करता हूं अन्ना जी के अंदोलन से। मोबाईल पर संदेश मिला पत्रकार मित्र का शामिल होने के लिये लाल बत्ती चौक पर आने का। भ्रष्टाचार का विरोध करते उम्र बीती है तो चला गया था। वहां जो देखा हैरान करने वाला था। कोई बेहद असभ्य भाषा का उपयोग कर रहा था किसी महिला नेता के बारे में उसकी निजि ज़िंदगी को लेकर। मुझे लगा यहां बैठना उचित नहीं। उठ कर जाने लगा तो एक व्यक्ति ने रुकने और कुछ बोलने को कहा , मैंने निवेदन किया कि शायद जो मुझे लगा और कहना चाहता हूं वो आपको पसंद नहीं आये। वो जानते थे मैं निडर हो अपनी बात कहता हूं। जब उन्होंने कहा कि आप ज़रूर बोलें , शहर के जाने माने साहित्यकार हैं , तब बोलना ही पड़ा और मैंने पूछा वहाँ बैठे लोगों से कि अभी जो सज्जन बोल रहे थे क्या वो उचित था। तब सब बोले कि नहीं वो गलत था , मैंने पूछा तब आपने एतराज़ क्यों नहीं किया। खैर मैं अपनी बात कह कर चला आया था , दुःख हुआ कि गांधी जी की तस्वीर लगा कर क्या क्या हो रहा है। जो बात वहां नहीं कह सका तब वो और भी ज़रूरी है , जो लोग मंच पर विराजमान थे वे वही थे जो खुद रिश्वतखोर थे और अधिकारियों के दलाल थे। समझ गया कि जैसे जे पी के अंदोलन में शामिल लोग बाद में सत्ता पाकर अपना घर भरते रहे और समाजवाद की नई परिभाषा घड़ते रहे अपने परिवार को भी राज परिवार बनाने का काम करते रहे , शायद वही फिर दोहराया जा सकता है। वास्तव में कुछ लोग नाम शोहरत और राजनीति में प्रवेश के लिये अवसर तलाशते रहते हैं , उनको किसी मकसद से किसी विचारधारा से कोई सरोकार नहीं होता है। देश भर में अन्ना की लहर थी जिसे मैं भी देख रहा था , पर सोचता था काश इस बार कुछ अच्छा हो। उसके बाद की बात सभी जानते हैं , वो सब पीछे रह गया है और इक नया दल सत्ता में आया एक राज्य में और अब उसको पूरे देश में दोहराना चाहता है। क्या सत्ता पाना मात्र ही सब का मकसद होना चाहिए या सत्ता पाकर उसको बदलना चाहिए जिस से तंग आकर जनता ने आपको चुना है। एक दौड़ शुरू हो गई सदस्य बनाने की , क्या जानते हैं जो आपके सदस्य बन रहे उनका ध्येय क्या है , अभी तक कहां थे क्या कर रहे थे। आपके दल के महत्वपूर्ण सदस्य ऐसे हैं जो सरकारी नौकरी करते थे , वेतन लेते थे लेकिन कभी काम नहीं करते थे , अपना कोई कारोबार चलाते थे। आज ये सब ईमानदार हो गये , दूध के धुले और आप सूचि जारी करते हैं बाकी दलों में भ्रष्ट लोगों की। विडंबना यही है कि सब को दूसरों के चेहरे के दाग़ नज़र आते हैं , अपने आप को कोई नहीं देखता आईने में। एक बात और बताना चाहता हूं , मेरे घर के पास एक दुकानदार कुछ दिन पहले इनकी टोपी पहन कर बैठता था , औरों को सदस्य बनाने का काम करता था। जब देखा उसको बिना टोपी के और पूछा तो उसने बताया कि इनकी वास्विकता समझ चुका है और अब किसी दल से कोई मतलब नहीं है उसका। मालूम नहीं इनकी जो संख्या है दस रुपये में सदस्य बने लोगों की उनमें कितने अपना मन बदल चुके हैं और कितने इनके आचरण को देख बदल सकते हैं। आप कुछ लोगों को कुछ समय तक मूर्ख बना सकते हैं , सब को हमेशा के लिये नहीं , ये सब जानते हैं। और ये जो पब्लिक है वो सब जानती है , भीतर क्या है बाहर क्या है ये सब को पहचानती है।