फ़रवरी 05, 2014

खेलने में भी समझदारी ( तरकश ) डा लोक सेतिया

    खेलने में भी समझदारी ( तरकश ) डा लोक सेतिया

कभी खेल खेल में बात बन जाती है और कभी बिना बात खेल बिगड़ भी जाता है। हुस्न वाले तो दिलों से भी खेला करते हैं , उनका ये शौक बहुत ही अजीब है। राजनीति तो है ही खेल सत्ता का लेकिन कई बार खेलों में भी राजनीति होने लगती है। कभी खिलाड़ी राजनेता बन जाते है , कभी राजनेता खेल खिलाने लगते हैं। बात अगर धनवानों की करें तो उनके लिये हर बात पैसे का खेल है। शादी से लेकर रिश्ते नाते दोस्ती तक सब में कारोबार होता है। अध्यापकों के लिये शिक्षा भी किसी कारोबार से कम नहीं है , जो खूब फल फूल रहा है। मगर खेलों जैसा कारोबार दूसरा कोई नहीं है। खेलने वाले खिलाड़ी तक इक खिलौना हैं , असली खेल तो टीवी चैनल वालों , और अपना सामान बेचने वालों का है जो विज्ञापन देकर अपना धंधा करते हैं। उन्हें जीत या हार से नहीं , रोमांच से मतलब होता है ताकि दर्शक देखते रहें। ये खेलते हैं खिलाते हैं और हर हाल में जीतते हैं मुनाफा कमा कर। इनके लिये क्रिकेट हाकी फुटबाल टैनिस सब बराबर हैं , किसी में कम किसी में अधिक कमाई है।

                बात अब समझ आई है , वर्ना लोग हैरान होते थे कि क्रिकेट के खेल में एक खिलाड़ी के आऊट होते ही बाकी सब भी पीछे पीछे लाईन लगा चल देते हैं। देखने वाले निराश होकर पानी की खाली बोतलें मैदान में फैंकने लगते और कमेंटेटर उनके आचरण पर अफसोस जताते। ऐसे समय उन खिलाडियों को कोई अफसोस है ये नज़र नहीं आता था। तब हम से अनाड़ी भी कहते कि इस से बेहतर तो हमी खेल सकते थे , भला शून्य से कम में हमें कोई कैसे आऊट कर सकता था। हम भी उनकी तरह शान से अपना सर उठा कर चलते , हम भी अपनी पत्नी के साथ विदेश की सैर करते शॉपिंग करते। हमें श्रीमती के ताने नहीं सुनने पड़ते कि कभी विदेश भ्रमण पर नहीं ले जा सकते। अब जाकर पता चला है कि खिलाड़ी दोषी नहीं थे अच्छा नहीं खेलने के लिये , सारा का सारा दोष उन सट्टेबाज़ों का था जिन्होंने पहले ही तय कर दिया था कि किस किस को किस किस गेंद पर कैसे आऊट होना है। माया महाठगिनी सब जानी , माया का खेल है , खेल की माया है। बहुत साल बाद मालूम हुआ कि कभी दक्षिण अफ्रीका से श्रंखला हमने ऐसे ही जीती थी। ये तरीका अगर समझ लेते तो हम कभी कोई मैच नहीं हारते। कहा जाता है इस दुनिया में सब बिकता है अगर सही खरीदार मिल जाये। आदमी का ईमान तक बिकाऊ है तो टीम क्यों नहीं हो सकती। दक्षिण अफ्रीका की टीम अगर चार करोड़ थी तो दूसरों की कुछ कम या अधिक होगी। बड़ी मज़ेदार बातें होती होंगी खिलाड़ियों के बीच। कोई कहता होगा यार हारने के बाद वहां चलोगे , दूसरा जवाब देता होगा शाम चार बजे तक मैच निपटा दें तब मज़ा आयेगा। कभी एक पूर्व खिलाड़ी पर चुटकुला बना हुआ था , पत्नी को फोन पर कहते थे कि अब ज़रा बैटिंग करने जा रहा हूं , तुम चाय बना लो तब तक घर आता हूं। मुमकिन है कोई बैटिंग को जाने से पहले आधी बची शीतल पेय की बोतल साथी को देते हुए बोले के पकड़े रखना अभी वापस आकर पीता हूं। सच पूछो तो मज़बूरी है इनके लिये खेलना , नहीं खेलें तो नाम नहीं मिलता विज्ञापन नहीं मिलते , न फिल्मों का आफर मिलता है न टीवी पर साक्षात्कार। जब ये सब मिलता है तब खेलना एक गले पड़ा ढोल होता है जिसको बजाना ही पड़ता है। हर कोई वही रोज़ रोज़ करते उकता जाता है , नेता समाज सेवा से , अफसर फाइलों से , वकील मुव्वकिल से , डॉक्टर मरीज़ से। लेकिन पैसे का मोह विवश करता है काम करने को। खिलाड़ी लोग समझते हैं सेंचरी बनाने के रनों के ही रेकॉर्ड बनाते हैं , मगर वो सोचते हैं इस साल एक होटल एक बंगला एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बना लिया है। एक शीतल पेय कंपनी का विज्ञापन है जिसमें एक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ी का मुखौटा पहन खेलने चला जाता है। ये सच में भी हो सकता है कभी जब मामला फिक्स हो। जीत हार तो खेल का हिस्सा हैं। अच्छा खेलने के लिये जितने मिलते हैं उससे अधिक पैसे खराब खेलने के लिये मिलते हों तो अच्छा खेलना बेवकूफी होगी। खराब खेलना भी समझदारी हो सकती है। केवल डिटरजेंट खरीदना ही समझदारी का काम नहीं है।