जून 11, 2017

मेरी कालजयी रचना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            मेरी कालजयी रचना ( व्यंग्य )  डॉ  लोक  सेतिया

  बड़ा ही सुंदर नज़ारा है , मंच सजा हुआ रंग बिरंगे फूलों से , उत्सव सा माहौल , खचाखच भरा हाल। साहित्यकार बुद्धीजीवी वर्ग और मेरे सभी सब दोस्त रिश्ते नाते वाले , मुझ से जलने वाले भी बैठे हुए हैं। मुझे मंच पर बैठा देख रहे सब लोग , इंतज़ार कर रहे हैं कि कब देश के सर्वोच्च पद पर आसीन महानुभव मंच संचालक के बुलावे पर उठ कर आएं और मुझे साहित्य लेखन और उम्र भर जनहित की बात करने पर पुरुस्कृत एवं सम्मानित करें। आखिर वह पल आ ही गया और मुझे मुख्यातिथि द्वारा फूलों का गुलदस्ता भेंट कर प्रशस्ति पत्र और सम्मान राशि का चेक दिया गया और सभा के सभी उपस्थित लोग तालियां बजा कर मेरा अभिवादन कर रहे थे। इस मुख्य काम की औपचारिकता पूरी होने के बाद मंच संचालक ने मुझे डायस पर आने और आज जिस रचना और कार्य की खातिर ईनाम मिला उन सब की बात बताने का आग्रह किया। मैंने तुरंत माइक को अपने अनुसार सही किया और अपनी बात विस्तार से बतानी शुरू की। ऐसा अवसर मुझे पहली बार मिला था और शायद अंतिम बार भी यही हो मुमकिन था। ये ईनाम जिस रचना पर मिला उसकी बात आखिर में करना उचित होगा , मैंने कहना शुरू किया इन शब्दों से। कहानी का अंत शुरू में पता चल जाये तो कहानी का लुत्फ़ नहीं रहता है। शुरू से बताता जो जो भी हुआ। 
 
           कुछ भी हो सकता है आज यकीन हुआ मुझे भी , अभी कुछ महीने पहले मेरे पासक्या था , अनाम इक लेखक। सभी कहते थे आप ने क्या हासिल किया है , साहित्य अकादमी क्या किसी स्थानीय संस्था तक से कोई पुरुस्कार सम्मान नहीं , किसी प्रकाशक से कोई किताब छपवाई नहीं। कितने साल से लिखते हर विधा में लिखा और देश भर में रचनाएं छपती रहीं फिर भी आपकी गिनती किसी में नहीं। सैंकड़ों व्यंग्य सैकड़ों ग़ज़ल कविताएं और जीवन की वास्तविकता पर मन को छूती कहानियां और झकझोर देने वाली रचनाएं आपके लिखे जनहित पर निडरता पूर्वक बेबाक लेख , इंसानियत के दर्द को कितना अच्छी तरह बयान किया है आपने। आपका अपना तरीका है सीधे साफ आसान शब्दों में बगैर कठिन गूढ़ शब्दों का उपयोग किये , अपनी खुद की शैली में लिखना बगैर किसी और से प्रभावित हुए आपकी रचना पढ़ना इक अनुभव कराती है। आपने क्यों अन्य मित्र लेखकों की तरह तमाम किताबें नहीं छपवाई , आपको ईनाम पुरुस्कार मिलते कैसे। आप किसी सरकारी संस्था , साहित्य अकादमी के सदस्य भी रहे नहीं कभी , किसी नेता अधिकारी से दोस्ती करके। जबकि अधिकतर लेखक खुद ये सब करते हैं अपनी ही जेब से पैसा खर्च कर किताबें छपवाना क्योंकि उनका मानना है इसी तरह उनका नाम सदा कायम रहेगा , दो सौ प्रतियां किताब की छपवा मुफ्त में पहचान वालों में बांट कर।

                          मैं भी सभी लिखने वालों की तरह चाहता था , मेरी भी किताबें कोई प्रकाशक छापता , मगर किसी ने संपर्क किया ही नहीं कभी। खुद अपने पैसे खर्च कर कुछ प्रतियां मुफ्त में बांटना वो भी उन को जिनको शायद पढ़ने में रूचि भी नहीं हो , मुझे उचित लगा नहीं। और अख़बार पत्रिका वाले भी बहुत कम हैं जो उचित मानदेय भी देना चाहते हों। करोड़ों की आदमनी करने वाले तक हिंदी के लेखक को इतना भी नहीं देना चाहते जिस से उस का जीवन यापन हो सके। शोषण की बात लिखने वाले लेखक खुद शोषण का शिकार हैं। मगर अख़बार और पत्रिका वाले नहीं मानते वो कोई गलत काम करते हैं , उनका विचार है वो रचना छाप कर लिखने वाले पर एहसान उपकार कर साहित्य की सेवा करते हैं। उनको रोटी की ज़रूरत है पेट भरने को मगर लेखक को भूख कहां लगती है , उसकी भूख तो छपने की ही है। कानून बदल गया हो तो क्या , आज भी जाने माने लेखकों को रायल्टी कौन देता है , भीख की तरह नाम को राशि देकर सभी अधिकार खरीद लेते हैं , गैर कानूनी ढंग से भी। मुझे इस सब से तालमेल बिठाना नहीं आया।

                     मगर अचानक कुछ महीने पहले मुझे इस बात का ख्याल आया कि , कोई नेता अपने भाषणों के जादू से ऐसा रुतबा हासिल कर चुका है जो भगवान से कम हर्गिज़ नहीं है। सब लोग समझते हैं जैसे कोई फरिश्ता या मसीहा ज़मीं पर उत्तर आया है हमारे सब दुःख दर्द मिटाने को। अब गरीबी भूख , अव्यवस्था , भरष्टाचार और महिलाओं बच्चों के शोषण , देश में फैली गंदगी जैसी समस्याओं का अंत कर अच्छे दिन सब को दिखाई देने लगेंगे। देश विदेश में भारत का नाम रौशन होगा और कोई किसान मज़दूर क़र्ज़ से तंग आकर आत्महत्या नहीं करेगा। सब को रोज़गार मिलेगा और सब अधिकार समानता के भी बराबर सबको। तीन साल तक कुछ भी ऐसा किये बिना ही टीवी अख़बार और सोशल मीडिया के उस चतुर खिलाड़ी ने विज्ञापनों द्वारा हर तरफ अपने नाम की गूंज खड़ी कर दी है। कोई जब उसको झूठा बताता है तब लोग मानते हैं जैसे कोई अधर्मी पापी भगवान का अपमान कर रहा है। जैसे कोई जादूगर तमाशा दिखलाता है और जो असंभव उसको देख हम सच समझने लगते हैं ,उसी तरह , मगर अंतर है हाल से बाहर निकलते हम समझ लेते जो देखा नज़रों का धोखा था असलियत नहीं। लेकिन इस जादूगर नेता का सम्मोहन खत्म नहीं होता बढ़ता जा रहा है। तब मुझे लगा बहुत लोग कोई आरती कोई चालीसा लिखते हैं चढ़ते सूरज को प्रणाम कर। मैंने ढूंढा तो पता चला अभी तलक नहीं सूझा किसी को ये। शायद मुझे ही करना होगा ये महान काम , इक भजन लिखना जो जन गण मन और सारे जहां से अच्छा गीत की तरह लोकप्रिय हो। जिस के बारे सरकार घोषणा कर दे कि इस भजन को गाने से सब समस्याएं हल हो जाएंगी और अच्छे दिन आ जाएंगे। जब मैंने ये अपना विचार सरकार को भेजा तो उसे पसंद आया ताकि हर विज्ञापन के साथ जोड़ इसको सोशल मीडिया पर उपयोग किया जा सके। और मैंने ये भजन लिखा।

           अब दिन अच्छे आये हैं , गूंगे भी सब गाये हैं। 

  भजन की धूम से हर तरफ मेरा नाम छा गया , और प्रकाशकों ने मेरा छपा अनछपा सब मुंह मांगे दाम देकर किताबों के रूप में छापा ही नहीं अन्य भाषाओं में अनुवादित भी किया। मुझे इक भजन ने मालामाल कर दिया है , मैं सुबह शाम उसी को गाता हूं और रोज़ बहुत कुछ मनचाहा पाता हूं। आप भी इस को जपना शुरू करो ताकि आपका भी कल्याण हो। मेरा संबोधन सुनकर सब तालियां बजा अभिवादन कर रहे थे खड़े हो कर। अचानक श्रीमती जी ने मुझे झकझोर कर जगा दिया , उठो अब दिन निकल आया है कब तक सोते रहोगे। काश मेरी नींद खुलती नहीं और मेरा सपना सच हो जाता , मेरा लिखा भजन राष्ट्रीय भजन घोषित किया जाता। कालजयी रचना इसी तरह रची जाती है।

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