नशेमन जल गया ( अ- कविता ) डॉ लोक सेतिया
सभी ने समझाया , फिर भी समझ नहीं आया ,
ठोकरों से कभी भी , नहीं आज तक घबराया।
इक घाटे का काम है , सच को सच ही कहना ,
फिर क्यों मैं सोचता , खोया है क्या क्या पाया।
गुज़ारी है ज़िंदगी सदा , झूठ से लड़ते लड़ते ,
ये बात और है कि मैं , हर बार हारता आया।
पर इस निज़ाम के हैं , दस्तूर सभी निराले बने ,
गहरी काली घटा बन , सूरज भी है कहलाया।
अब रौशनी नाम है , अंधकार को दिया है जब ,
सब को डराता है अब , खुद ही खुद का साया।
सब कुछ वही है लेकिन , बदले हैं नाम सबके ,
बदहाली शब्द जो था , है खुशहाली कहलाया।
बस शोर हर तरफ है , मेरा देश बदल रहा है ,
बंधी आंखों पर पट्टी , इक कोल्हू चल रहा है।
अब बोलना ही मना है , सच बोलना गुनाह है ,
दम मेरा घुट रहा है , सब कुछ फिसल रहा है।
ये कौन आया जिसने , जलता दिया बुझा कर ,
सारे घर आंगन में काला , धुआं भर दिया है।
उसी की हर अदा पर , ये दुनिया हुई फ़िदा है ,
नहीं आदमी जी सकता , बनाया किसे खुदा है।
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