दिसंबर 14, 2024

POST : 1928 ऊंची दुकान फ़ीके पकवान ( पर्दाफ़ाश ) डॉ लोक सेतिया

      ऊंची दुकान फ़ीके पकवान ( पर्दाफ़ाश ) डॉ लोक सेतिया  

                           अस्वीकरण ( घोषणा ) 

(  रचना के पात्र व घटनाएं  काल्पनिक हैं किसी भी व्यक्ति या धर्म अथवा संस्था को लेकर नहीं हैं कृपया निजी व्यक्तिगत घटनाओं से मत जोड़ कर देखें । संयोगवश किसी भी प्रकार से मेल खाने पर लेखक का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा । लेखक सभी धर्मों का आदर करता है और तमाम धर्मों एवं विचारधारा सामाजिक सांस्कृतिक आदर्शों का पूर्ण रूप से सम्मान करता है । सभी चरित्र मनोरंजन एवं हास परिहास के उद्देश्य से लिखे व निर्मित किए गए हैं और किसी भी रचना के पात्र का किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई भी सरोकार कदापि नहीं है । लेखक का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं है । कृपया पाठक हास परिहास को ध्यान में रख कर रचनाओं से आंनद उठाएं और अन्यथा नहीं लें व्यक्तिगत रूप में समझना उचित नहीं होगा । )
 
 मुझसे कहा गया है उनको लेकर इक वास्तविक कहानी लिखनी है , मैंने पहले उन के अनोखे सफर की
 दिलकश दास्तां लिखी थी दिसंबर 2013 में इक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जिस का लिंक नीचे दिया जाएगा पहले अभी 11 साल बाद जो लिखना है वो उनकी वास्तविकता को उजागर करना है । नाम बड़े और दर्शन छोटे बिल्कुल सटीक होगा कहना । आजकल कहानी की पटकथा लिखते हैं कथन करना सुनाना नहीं अलग अलग किरदार की बात की जाती है इसलिए नीचे कुछ वास्तविक किरदार की पर्दे के पीछे की ज़िंदगी की वास्तविकता दर्शानी है । सबसे पहले इस बात को समझना ज़रूरी है कि साहित्य कला नाटक संगीत अभिनय सभी संचार माध्यम फ़िल्म टेलीविज़न का वास्तविक मकसद समाज को सही मार्गदर्शन देने से पहले समाजिक वास्तविकताओं विसंगतियों से रूबरू करवाना होता है । जो भी सृजन किया जाए उस से देश समाज को बेहतर बनाने में योगदान के आधार पर परखना चाहिए दिन साल महीने इसका पैमाना नहीं होता है तभी कहते हैं ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं ।

उनका नाम फिल्म जगत का पर्याय बन गया था , प्यार दोस्ती भोलापन त्याग से लेकर सुंदरता संगीत और दुनिया को हंसाने को कितने रंग रूप बदलने का नायक का किरदार निभाया था । ज़िंदगी में किसी को प्रेम का ख़्वाब दिखला उसको अपनी कहानी में सफलता पाने का माध्यम बनाते रहे बहुत बाद में उस प्रेमिका को समझ आया तो उस नायिका ने ऐसा किरदार निभाया जो हमेशा देश की किसी माता की पहचान बन गया । महिला चाहे पुरुष कोई भी किसी पिंजरे में कैद रहकर वास्तविक ख़ुशी आनंद का अनुभव नहीं कर सकते भले कितना सुंदर सोने का बना पिंजरा ही क्यों नहीं हो । दोस्ती निभाने की बात क्या बताएं जिस ने उनको कितने ही लाजवाब गीत दिए शोहरत पाने और इक मासूम भोले आदमी की छवि बनाने के लिए जब उस की मुश्किल घड़ी और परेशानी का दौर आया तो जनाब ने सहायता करना तो छोड़ उल्टा उनकी कठिनाई बढ़ाई जो वादा किया था कि उनके विरतक से सहायता दिलवाने का निभाया नहीं । दोस्त दोस्त न रहा लिखने वाले को तीसरी कसम का गीत साजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है , शायद अगर ऊपर कोई जगह है तो नज़रें मिलाना आसान नहीं होगा । पर्दे की कहानियों में जो गरीब और बेचारा लगता था जिसे सभी लोग ठोकर लगाते थे असली ज़िंदगी में उसे कभी कोई चिंता नहीं थी सभी कुछ बिना मांगे मिलता था , कभी कोई एक प्रयोग सफल नहीं भी होता तब भी उसको आता था जो बिकता है उसको बेचना और मालामाल होना । इधर किसी की ज़िंदगी पर फिल्म बनाने का चलन है चलचित्र जीवनी कहते हैं मगर उस का मतलब होता है छुपे हुए अनछुए पहलुओं को सामने लाना अर्थात आकाश को धरती पर उतारना । 

बाकी सभी किरदार की बात संक्षेप में लिखते हैं , बड़ा ऊंचा कद है , किरदार कैसा भी हो निभाना उनकी काबलियत को साबित करता है । लेकिन खूब धन दौलत पास होने पर भी अपने बचपन से दोस्त रहे खास परिवार की आर्थिक विवशता जो दोस्त की संतान की शिक्षा की फ़ीस भरने भर की थी उनसे नहीं हुआ । सच सच कहा जाये तो जिन दोस्तों ने उनकी खराब समय पर सहायता की उनकी बदहाली में उनसे संबंध विच्छेद करते कोई संकोच नहीं किया । करोड़ों का खेल उनकी चाहत है जिस में दिखाई देता है वही कितनों की गरीबी मिटाते हैं जबकि वास्तव में उनकी खुद की अधिक से अधिक हासिल करने की हवस मिटती नहीं है । जिस को लोग भगवान की तरह मानते हैं उस ने अपनी ज़रूरत या चाहत की खातिर नियम कानून सभी को तार तार किया है कोई नहीं समझता क्या ऐसे होते हैं महानायक । 

कोई अपने पिता से नाराज़ था पत्नी की मौत के बाद शादी करने की बात पर , लेकिन खुद न केवल अपने पिता के दोस्त से आर्थिक सहायता मांगने जाता है और जिस से शायरी की शिक्षा अथवा सहयोग पाता था उसी की बेटी से दूसरा विवाह करता है । उनका लेखन और ज़िंदगी आपस में विरोधी लगते हैं । सही मायने में माया नगरी में कुछ भी असली नहीं है लेकिन उनकी नकली झूठी छवि को चमकदार बनाकर पीतल को सोना घोषित कर बेचते हैं । पारिवारिक विषयों पर किरदार और कहानियां बनाने वाले खुद कब किस रिश्ते से छल कपट धोखा करते हैं कोई नहीं जानता और सामाजिक सरोकार की बात की जाये तो कोई अपराध नहीं है जो इस दुनिया के बड़े नाम वाले लोग नहीं करते फिर भी उनको कोई सज़ा नहीं मिलती और न ही कोई कभी आत्मग्लानि की भावना दिखाई देती है । अधिक क्या बताया जाये जिनको समाज को सही मार्ग बताना चाहिए था अपने आर्थिक फायदे के लिए समाज को गलत संदेश देने और भटकाने का कार्य कर रहे हैं । 
 
मगर सबसे अजीब और भयानक इक और भी तौर तरीका है इस दुनिया का , कुछ लाजवाब लोग लिखने वाले निर्माता निर्देशक गायक हुए हैं जिनको कुछ भी नहीं मिला सिवा निराशा और नाकामी के । कोई वापस लौट गया अपना लिखा दीवान मज़बूरी में बेच कर और जिसने खरीदा वो नाम शोहरत से नवाज़ा गया । कोई ख़ुदकुशी कर गया हालात से तंग आकर तो कोई बेमौत मर गया दर्द सहते सहते । किसी का परिवार जिसे हमेशा नाकाम समझ ठोकर लगाता रहा क्योंकि उसको कोई मेहनत का मोल नहीं मिला था , बाद में जब उनकी बड़ी ग्रंथ जैसी किताब प्रकाशक ने अपने प्रकाशन के 75 साल होने पर दोबारा प्रकाशित की जिस में सदियों के शायरों की रचनाओं के साथ साथ देश की भाषाओँ संस्कृति और लोकगीत कहावतों पहेलियों का अनमोल खज़ाना था । कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि कोई जीवन भर साहित्य और अदब को इस तरह से ख़ामोशी से समर्पित होकर योगदान देता रहा गुमनामी में रहते हुए । जब उस अवसर पर उनके बेटे को आमंत्रित किया गया तब उनको अपने वालदेन की काबलियत समझ आई । कितना दुखद है कोई गैर तो क्या देश दुनिया तो क्या उसके अपनों ने भी उनकी कद्र नहीं समझी । अर्थात ये इक फरेब की दुनिया है जिस में उजाला कम अंधकार ज़्यादा है ।  

जैसा हमने शुरुआत में निर्धारित किया था कौन कितने वर्ष ज़िंदा रहा उस से अधिक महत्वपूर्ण है कि उस अवधि में उस अंतराल में किसी ने क्या सार्थक योगदान दिया क्या प्रभावशाली था अथवा बस कुछ घंटे का खेल तमाशा एवं शोर शराबा । कुछ एक को छोड़कर अधिकांश सिनेमा जगत टीवी सीरियल अख़बार पत्रिकाओं ने जो भी अच्छी बातें कहीं खुद उन्हीं पर खरे नहीं उतरे कभी । सादगी शराफ़त सच्चाई ईमानदारी से लेकर जनता की समस्याओं तक को उन्होंने उपयोग किया वास्तविक सरोकार नहीं निभाया । जैसे कभी कभी कुछ लोगों ने सामाजिक विषमताओं से अवगत होने पर खुद अपनी जमापूंजी और ध्यान पीड़ित लोगों की सहायता करने पर केंद्रित किया । सौ साल क्या हज़ार साल का जश्न भी व्यर्थ है अगर उन्होंने देश और समाज में वास्तविक बदलाव पर कोई ध्यान नहीं दिया और सिर्फ अपनी कामयाबी को ही महत्व देते रहे ।
 
 
कुलदीप सलिल जी की इक ग़ज़ल से कहानी को विराम देते हैं । 

इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बन्दों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

रौशनी छीन के घर घर से चरागों की अगर 
चाँद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 
 
सीख ले दोस्त भी कुछ तो तजुर्बे से कभी 
काम ये सिर्फ मेरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना 
आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

खूब तु खूब तेरा शहर है ता - उम्र मगर 
एक ही आबो-हवा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

हूँ मैं कुछ आज अगर तो हूं बदौलत उसकी 
मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

हो चरागाँ तेरे घर में मुझे मंज़ूर सलिल 
गुल कहीं और दिया हो मुझे मंज़ूर नहीं ।


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1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

सटीक....इशारों इशारों में सच्चाई से रूबरू करता लेख