जनवरी 26, 2024

अंधों की नगरी का सूरज ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

      अंधों की नगरी का सूरज ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

उस नगरी में लोग हमेशा से दृष्टिहीन नहीं थे सब को कुछ नहीं बहुत कुछ दिखाई देता था । जाने कौन था जिस ने उनको करीब से निरंतर सूरज को देखने का उपदेश दिया था जीवन का अंधकार मिटाने की चाह पूर्ण करने का उपाय समझाया था , बस उसी अंधविश्वास ने उनका जीना दुश्वार कर दिया । अंधेरों की दुनिया में कोई भेदभाव नहीं होता कोई छोटा बड़ा नहीं होता सभी एक समान होते हैं । वही सूरज जिस की रौशनी की चकाचौंध ने उनको अंधा बनाया उसी से फिर से उजाला करने की विनती करते हैं सब नगरवासी । सूरज इक आग का गोला है जो भी टकटकी लगा उसे देखता है अंधियारा उसका नसीब बन जाता है । उसे जलाकर राख करना ही आता है शीतलता उस का स्वभाव नहीं है धरती जानती है निरंतर घूमना आवश्यक है सभी को कभी दिन कभी रात मिलना ज़रूरी है जीने और बढ़ते रहने के लिए । धरती को ये सबक किसी ने कभी सिखाया नहीं खुद अपने अनुभव से अपने पर बसने वाले प्राणियों जीव जंतुओं की रक्षा को समझा है । इक दार्शनिक विचार कर रहे हैं कैसे साधारण लोगों को ये बात समझाई जाए कि किसी से भी अधिक करीबी होना या किसी की चमक पर आसक्त होकर लगातार उसी पर निगाह रखना कितना ख़तरनाक साबित हो सकता है । ये भी ग़ज़ब की बात है कि असंख्य लोग अंधे होते नहीं फिर भी उनको सामने की सच्चाई दिखाई देती नहीं है क्योंकि उनकी बुद्धि पर किसी की शोहरत का इक पर्दा पड़ा होता है जो सावन के अंधों की तरह हर तरफ हरियाली ही हरियाली देखता है । कितने पढ़ लिख कर समाज में सभी कुछ हासिल कर लेने के बाद भी मानसिक गुलामी और चाटुकारिता व्यक्ति को विवेकहीन बना देती है । ये ऐसा रोग है जो जितना उपाय करते हैं और अधिक बढ़ता जा रहा है सूरज अपने अनुयाईयों की बर्बादी पर इतरा रहा है अपनी ताकत से सब को डरा रहा है ज़ुल्म ढा कर मुस्करा रहा है । कोई एक आंख वाला अंधों का राजा बनकर शासन चला रहा है । देखो काना देख रहा बहरा सुन रहा गूंगा क्या मधुर स्वर में गीत गा रहा है । आखिर में इक ग़ज़ल पढ़ते हैं । 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 
हैं उधर सारे लोग भी जा रहे
रास्ता अंधे सब को दिखा रहे ।

सुन रहे बहरे ध्यान से देख लो
गीत सारे गूंगे जब गा रहे ।

सबको है उनपे ही एतबार भी
रात को दिन जो लोग बता रहे ।

लोग भूखे हैं बेबस हैं मगर
दांव सत्ता वाले हैं चला रहे ।

घर बनाने के वादे कर रहे
झोपड़ी उनकी भी हैं हटा रहे ।

हक़ दिलाने की बात को भूलकर
लाठियां हम पर आज चला रहे ।

बेवफाई की खुद जो मिसाल हैं
हम को हैं वो "तनहा" समझा रहे ।
 
 अंधों की नगरी | Kingdom of Blinds - YouTube
 

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