गरीबों का भगवान कहां है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
वो ऊपर बैठा क्या जाने सब कुछ कितना बदल चुका है , ईश्वर भी सब खुद देखना भूल गया होगा । धरती पर भगवान भगवान का इतना प्रचार इतना शोर देख सुनकर यकीन करने लगा होगा सब बढ़िया है । बल्कि समझता होगा कि जो उसको जानते समझते हैं पहले धरती पर दीन हीन दुःखी लोगों की सहायता कर उनकी दशा सुधार कर बाद में इतना कुछ भगवान की पूजा अर्चना करने को कोई इमारत बनाने उसे संवारने सजाने और कितने पकवान बना कर भोग लगाने पर खर्च करते होंगे । शायद ईश्वर को धरती लोक की जानकारी और हाल चाल की सूचनाएं देने वाले सरकारी विभागों की तरह आंकड़ों को सुविधानुसार बदल कर कुछ भी चिंता की बात नहीं है कहते होंगे अपने आका को खुश रखने को । या अगर सब देखता है जान कर भी अपनी ही दुनिया की अधिकांश आबादी की भूख और बदहाली को अनदेखा करता है तो वो कुछ ख़ास बड़े लोगों और पैसे वाले धनवान लोगों का भगवान बन गया है अथवा उन्होंने ही अपना भगवान अपनी शान ओ शौकत के हिसाब से बना लिया है ।
शानदार महल जैसा घर रहने को और चौबीस घंटे अपना गुणगान सुनते हुए उसे अपने इंसानों की परेशानियों की चिंता ठीक उसी तरह नहीं होती होंगी जैसे राजनेताओं को सत्ता मिलते ही हर तरफ हरियाली दिखाई देती है और सरकारी अधिकारी कर्मचारी उनके आदेश का पालन करते समय उचित अनुचित की परवाह नहीं करते हैं । फटे पुराने कपड़े पहने गरीब भगवान की चौखट पर अपनी व्यथा बताने तो क्या उस ईश्वर को मनाने ही को आए भी तो सभी उसको शंका की नज़र से देखते हैं , बस चले तो बाहर निकाल देते हैं । अब तो भगवान के दरवाज़े पर भिखारी भी आने से घबराते हैं हां बड़े आलीशान महल जैसे धार्मिक स्थल पर भिखारी खड़े रहते हैं व्यवस्था चलाने वालों की अनुमति से उनका आश्रय पाकर । आजकल धर्म और ईश्वर कारोबार से लेकर राजनीति तक बड़े काम आते हैं , भगवान का प्रचार प्रसार किया जाता है कुछ पाने की खातिर खोने की बात कोई नहीं करता आजकल । संचालन करने वाले नियम कायदे बनाते हैं कैसे कौन दर्शन करेगा किस श्रेणी में कितना शुल्क चुका कर पहले ख़ास कतार में भगवान के कितना पास जाकर वंदना करेगा और प्रसाद पाएगा । भगवान कुछ नहीं कर सकता न ही उस से अनुमति ले कर ये सब तय किया जाता है शायद भगवान को चुप चाप आंखें मुंह कान बंद रखने की हिदायत की आवश्यकता नहीं तभी पत्थर या धातु की मूर्ति प्रतिमा बनवाते हैं । मिट्टी से इंसान को बनाने वाले को मिट्टी से बचाकर रखना पड़ता है अन्यथा मिट्टी मिट्टी की खुशबू को पहचान सकती है ।
दो नन्हें - मुन्हें बच्चे चले आये गुरु जी से पढ़कर सीखकर ईश्वर की गाथा गाते हुए । सुरक्षा जांच करवानी पड़ी उनके वाद्य-यंत्र कहीं कोई ख़तरनाक शस्त्र नहीं हों । अपनी माता को देखा था हूबहू ऐसी ही इक प्रतिमा की पूजा आरती करते । कभी उनको उस में छवि दिखाई देती थी खुद से मिलती हुई लेकिन ये जैसा सभी समझ रहे हैं उनकी प्रतिमा प्रतीत नहीं होती थी शायद जैसे वो पास बुलाती लगती थी बाहें फैलाए ये कदापि नहीं लग रही थी । ये भगवान की मूर्ति अपनी संतान को पहचान नहीं रही थी इक परायापन महसूस हुआ दोनों भाईयों को उस जगह । उस शानदार महल नुमा इमारत में भगवान से अधिक चर्चा देश के अमीर लोगों और बड़े उद्योगपतियों पूंजीपतियों ख़ास दानवीर कहलाने वाले जाने माने व्यक्तियों की सुनाई दे रही थी । उन दो मासूमों की मधुर मगर दर्द भरी आवाज़ किसी को आकर्षित नहीं कर सकी थी । किसी ने उनको ध्यान पूर्वक देखा तक नहीं कोई महत्व नहीं था उनके किसी भी संबंध का ।
लौट कर आश्रम आये और माता जी एवं गुरूजी को बताया कि आपकी आज्ञा से उस शहर और इमारत ही नहीं उस भगवान को भी देख आये हैं । लेकिन ये वो दयानिधान कृपालु भगवान प्रतीत हुए नहीं बल्कि अति विशिष्ट लोगों ने खुद अपने लिए कुछ और निर्माण कर लिया है । उन दोनों भाईयों ने संकल्प लिया है हर साधारण सामान्य व्यक्ति के घर झौंपड़ी या मकान चाहे खुली सड़क फुटपाथ पर रहने वाले को वास्तविक भगवान की मिट्टी की बनी मूर्ति उपलब्ध करवाएंगे जो उनकी परेशानियां और दुःख दर्द मिटाएगी उनको सभी शुभ मनोकामनाओं का फल प्रदान करेगी। भगवान का मंदिर हज़ारों करोड़ खर्च कर अभी भी आधा अधूरा है कितना और धन सोना चांदी हीरे जवाहरात ज़रूरत है और देने वाले भी उसी से और अधिक मांगते हैं भले कितने धनवान हों तब भी उनकी धन दौलत ताकत शोहरत की वासना पूरी नहीं होती । धार्मिक पुराणों में वही सब से दरिद्र कहलाते हैं । गरीबों की वहां कौन पूछे जहां तमाम अमीर धनवान अपनी झोली फैलाए दिखाई दिए ।
1 टिप्पणी:
बहुत शानदार आलेख
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