मत का है , मतदाता का मोल कुछ नहीं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
आज 25 जनवरी 2024 है 14 वां राष्ट्रीय मतदाता दिवस है , देश में 25 जनवरी 1950 को चुनाव आयोग का गठन किया गया था 26 जनवरी से गणतंत्र दिवस मनाया गया जो तभी से हर वर्ष धूम-धाम से मनाते चले आ रहे हैं । 2011 में देश की सरकार या चुनाव आयोग को प्रतीत हुआ की वोट अथवा मतदान का रुतबा और कीमत आसमान छूने लगा है लेकिन जो नागरिक मतदान करता है उसकी हालत बद से बदत्तर होती जा रही है । हरिशंकर परसाई जी कहते हैं जो कमज़ोर होते हैं उनका दिवस मनाना पड़ता है ताकतवर का हर दिन होता है । मतदाता भगवान है मगर भगवान सबको मनचाहा वरदान देता है उसे कुछ भी चाहिए नहीं हां दिखावे को पकवान बनाकर भोग लगाते हैं लेकिन भगवान खाते कुछ नहीं बस औपचरिकता निभा वही सब कुछ लोग आपस में बांट कर खा लेते हैं । भगवान मोटे होते हैं न ही पतले ही क्योंकि वो हाड़ मांस के नहीं पत्थर के या किसी धातु के बनी प्रतिमा होते हैं । मतदाता भी बेजान होते तो क्या बात थी लेकिन इंसान होते हैं कोई रोबेट नहीं । लेकिन राजनेताओं और चुनाव आयोग या लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर टिप्पणी करने से पहले खुद अपने गिरेबान में झांकना उचित होगा तभी आज का वोटर दिवस सार्थक हो सकता है । दान कभी लोभ लालच या बदले में कुछ पाने को देना चाहिए , मतदान भी सोच विचार कर सही गलत का आंकलन कर दिया जाना चाहिए । जो बिक गया वो ख़रीदार नहीं हो सकता है मतदाता बिकने लगे या उचित अनुचित की परवाह नहीं कर अपने नाते रिश्ते जाति धर्मं समुदाय को ध्यान में रख देने लगे तभी अपराधी गुंडे बाहुबली सांसद विधायक बन कर हर किसी पर ज़ुल्म ढाने लगे । सांसद बंधक बनने लगे बिकने लगे विधायक से जनता के चुने सभी प्रतिनिधि पार्षद सरपंच इत्यादि सत्ता के तराज़ू के पलड़े पर बैठ तुलने लगे तो भाव जितना भी बढ़े औकात दो टके की समझी जाने लगी है । चलिए अल्लामा इक़बाल जी जो आज़ादी से पहले कह गए थे उन शेरों को पढ़ते हैं ।
जमहूरियत - अल्लामा इक़बाल
इस राज़ को इक मर्दे-फिरंगी ने किया फ़ाश ,
हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते ।
जमहूरियत इक तर्ज़े - हुक़ूमत है कि जिसमें
बन्दों को गिना करते हैं टोला नहीं करते ।
( अर्थ है कि इक यूरोपवासी ने ये राज़ प्रकट किया की बुद्धिमान इस बात को खोला नहीं करते हैं , की
लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली है जिस में बन्दों की गिनती की जाती है उनकी काबलियत की परख नहीं की जाती है। )
नई तहज़ीब - अल्लामा इक़बाल
उठाकर फैंक दो बाहर गली में
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गंदे ।
इलेक्शन मिम्मबरी कैंसिल सदारत
बनाए खूब आज़ादी के फंदे ।
मिंयां नज़्ज़ार भी छीले गए साथ
निहायत तेज़ हैं युरूप के रंदे ।
( अर्थ है ये सभी आधुनिक ढंग की व्यवस्था सड़ी गली है खराब अण्डों की तरह इनको उठाकर बाहर गली में फैंकना उचित है । चुनाव प्रतिनिधि सभा का गठन और उनका मुखिया बनाना ये जनता की आज़ादी को छीनने को फंदे बनाये गए हैं । ये विलायती रंदे अर्थात आरी बड़ी तेज़ है जो बढ़ई लकड़ी को छीलता है खुद उस के हाथ भी छिलने से बचते नहीं हैं । )
बलबीर राठी जी के कुछ शेर :-
न मंज़िल की खबर जिनको न राहों का पता है ,
जिधर भी जाओगे तुमको वही रहबर मिलेंगे ।
जो सच को झूठ कर दें झूठ को सच बना दें ,
मेरी बस्ती में तुमको ऐसे जादूगर मिलेंगे ।
अंधेरों की सियासत भी समझ लो ,
उजाले ढूंढ कर लाने से पहले ।
हिसाब अपने सितम का भी तो कर लो ,
ये अहसानात गिनवाने से पहले ।
यारो खूब ज़माने आए ,
ज़ालिम ज़ख्म दिखाने आए ।
ज़ुल्म से लड़ने जब निकले हम ,
लोग हमें समझाने आए ।
अभी तक आदमी लाचार क्यों है सोचना होगा ,
मज़ालिम की वही रफ़्तार क्यों है सोचना होगा ।
मज़ालिम : ज़ुल्मों
ये दुनिया जिसको इक जन्नत बनाने की तमन्ना थी ,
अभी तक इक जहन्नुमज़ार क्यों है सोचना होगा ।
रूठ गया हमसाया कैसे ,
तुमने वो बहकाया कैसे ।
इतना अंधेरा मक्कारों ने ,
हर जानिब फ़ैलाया कैसे ।
तुमने अपने जाल में इतने ,
लोगों को उलझाया कैसे ।
सभी ने देश समाज की पुरानी इतिहास की बातों को पढ़ना समझना छोड़ दिया है , इक अतीत था जिसे हमने और भी रौशन करना था लेकिन हमने अपनी आंखों पर ऐसी पट्टी बांध ली है कि हम झांककर भी नहीं देखते कि नैतिकता और आदर्श पर हम ऊंचा चढ़े हैं या कि नीचे गिरते जा रहे हैं । जिन्होंने सूरज को चुरा लिया है उन से रौशनी की उम्मीद करना व्यर्थ है । कद बढ़ा है या फिर ढलते सूरज से साया लंबा होता जा रहा है गौर से देख लेना । शासक बनते ही देश की जनता को ख़ैरात देने की बात करने वाले नहीं जानते खुद सफेद हाथी की तरह बोझ बन गए हैं गरीब जनता की कमाई से शान से जीना गर्व की नहीं शर्म की बात होती है । हमने देखा है उन महान राजनेताओं को जो सत्ता पर बैठ कर भी सादगी पूर्ण जीवन जीते थे , जब देश की आधी आबादी गरीबी और बदहाली में रहती हो उनका निर्वाचित प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री खुद पर और अपने नाम के प्रचार पर करोड़ों रूपये रोज़ खर्च करता हो तब इसे देश सेवा देश भक्ति नहीं कुछ और कहते हैं । मैंने बीस साल पहले लिखा था कि आज तक का सब से बड़ा घोटाला सरकारी विज्ञापन हैं जो अख़बार टीवी चैनल को इश्तिहार के नाम पर सत्ता की चौखट पर नतमस्तक होने को विवश करते हैं , आज तो सत्ता से सांठगांठ कर कारोबार उद्योग से लेखक कलाकार तक अपना ज़मीर बेच धनवान बनना चाहते हैं और बन रहे हैं ।
विडंबना देखिए जो जो भी इस लोकतंत्र के चीरहरण में शामिल हैं वो सभी आज वोटर दिवस पर आयोजित सभाओं गोष्ठियों में मंच पर बैठे दिखाई दे रहे हैं और जनता रुपी द्रोपती की लाज बचाने कोई नहीं आएगा । चुनाव आयोग अन्य संघटन न्याय का जनाज़ा उठते देख मौन हैं ।
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