धरती पर घर बनाया है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
ख़ुद भगवान का सुन कर सर चकराया है
इंसान ने धरती पर घर उसका बनवाया है
सोने के किवाड़ हैं स्वर्गवासी हुए हैरान हैं
धूप भी छाया लगती अजब ग़ज़ब रंग रूप है
जाने किस की माया है खोया जो पाया है ।
चिंता भगवान की बड़ी कौन समझ पाएगा
इतनी कीमती चीज़ों को कोई जो चुराएगा
सुःख चैन पुजारियों का उड़ ही नहीं आएगा
सुरक्षा करने वालों का ऐतबार नहीं कोई भी
मुकदमा चला भी अंतिम निर्णय कब आएगा ।
सोने चांदी से बनते सजते कितने भगवान हैं
मिट्टी जिनकी पहचान है वही सिर्फ इंसान हैं
शीशे का महल उसका पत्थर से घबराता है
हाथ ख़ाली थे सिकंदर देखा सभी ने आख़िर
नादान है व्यर्थ ही संचय करता सब सामान है ।
पढ़ पढ़ शिक्षक बने तनिक किया नहीं विचार
होगा गहरे पैठना जिसको जाना भवसागर पार
प्रेम की भाषा अच्छी जिस का हो शुभ विचार
करुणा और विवेक से ख़ुद मिलते हैं भगवान
आडंबर से झूठे अहंकार से है डूबा सब संसार ।
अपने मन को मंदिर बनाओ तब होगा कल्याण
अपने भीतर झांको तभी मिलते हैं प्रभु श्री राम
हमको नहीं है पता किस का कैसा ज्ञान ध्यान
रहा नहीं कोई भी शहंशाह और किसी का दरबार
उपदेशक खुद मार्ग भटके देते सिर्फ व्याख्यान ।
हीरे मोती सोना चांदी और कितने सुंदर परिधान
हलवा पूरी भोग लगाएं कितने बना मधुर मिष्ठान
उसको क्या , जिसने खाये झूठे शबरी के हों बेर
बाहर उजाला भीतर अंधेरा है वाह रे ओ नादान
खोजा नहीं मिल जाते हैं कण-कण में हैं भगवान ।
भगवान को किया है सावधान बता नियम कानून
इतना सोना कैसे हुआ हासिल ये मत जाना भूल
बड़े बड़े लोगों की होती है घर दफ़्तर की तलाशी
लक्ष्मी जी भी नहीं बचा पाती कि उनका है वरदान
शपथ-पत्र देना चाहिए नहीं ये सब मेरा साज़-सामान
दुनिया क्या जाने कांटों संग रहते कैसे सुंदर फूल ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें