भगवान बेचते सब पैसे के पुजारी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
झूठ बोलते हैं अदालत में शपथ खाकर सच बोलने की संविधान की शपथ उठाकर धज्जियां उड़ाते हैं। हम सच नहीं कहते झूठ से पर्दा हटाते हैं जो देखते हैं उसकी असलियत समझते समझाते हैं। इधर उधर से ढूंढकर मुद्दे लाते हैं सिक्का नहीं उछालते नहीं किस्मत आज़माते हैं राज़ की बात भरी महफ़िल में कहते हैं बेआबरू होकर निकाले जाते हैं। खेल पैसे का है पैसा भगवान है कथा कहानी हक़ीक़त फ़लसफ़ा है। शुरुआत करते हैं टीवी पर इक नया विज्ञापन चल रहा है गांव के लोग बात कर रहे हैं स्कूल की ईमारत की हालत खराब है कुछ करना होगा सरकार ने हाथ खड़े कर दिये हैं। जब तलवार मुकाबिल हो अखबार निकालो आजकल कोई नहीं कहता क्योंकि अखबार टीवी चैनल खुद बंदर के हाथ उस्तरा बन गए हैं बंदर बांटता है बिल्लियां रोटी खाने की आस लिए बंदर का गुणगान करती हैं। कुछ मुहावरे की नकल की तरह उपाय ढूंढते हैं और निर्णय किया जाता है मुनादी करवाई जाती है केबीसी को फोन लगाओ गांव के समझदार सब उल्लू बन जाओ। लगता है सरकार ने अमिताभ बच्चन को ज़िम्मा सौंपा है हमसे नहीं होता आप केबीसी से विकास की गंगा लाओ जनता को समझाओ खाली दिमाग शैतान का घर होता है सबके दिमाग में कचरा भर कर उलझन को सुलझाओ नहीं सुलझती और उलझाओ। बस 15 सवाल हैं ज़िंदगी मौत का सवाल नहीं है कोरोना को छोड़ो धमाल नहीं मिसाल नहीं है। आपके सामने ऑप्शन होते हैं किधर जाना है सही दिशा कौन सी है दिमाग़ कहता है जिधर सभी जाते हैं उसी डगर चलना ठीक है दिल है कि मानता नहीं और आत्मा भटकती है कोई अलग रास्ता बनाने को चिंतन करती है लेकिन रटी रटाई बात याद आती है सत्य की खोज की ज़रूरत नहीं है आगे बढ़ना है तो जो जवाब पैसा दिलवाता है उसी को लॉक करना होगा। कपिल शर्मा के कॉमेडी शो में सही जवाब का शोर मचाकर बच्चा यादव मंच को हिलाकर रख देता है। अमिताभ बच्चन और टीवी शो वाले खुद अपनी असलियत नहीं जानते दुनिया भर की जानकारी समझदारी की बातें करते हैं। दुनिया से जाना है खाली हाथ सबको मगर क्या कमाल है कुत्तों को खिलाते हैं जानवर से प्यार करते हैं इंसान को इंसान नहीं समझते आदमी आदमी को भूनकर खाने लगे हैं। दुष्यन्त याद आने लगे हैं घर मिल रहा जहां तहखानों से तहखाने लगे हैं। महल वालों के अंदाज़ नज़र आने लगे हैं घर वही है रहने वाले लोग वही हैं दरवाज़े अलग अलग होने लगे हैं करीब होकर दूर जाने लगे हैं बात करने से बचते हैं मिलने जुलने से कतराने लगे हैं। अपने भीतर शिकवे शिकायत बैर नफरत छुपा नकाब चेहरे पर लगाकर मुस्कुराने लगे हैं।
सत्तावाले सोने चांदी के कलम भिजवाने लगे हैं जो बात लिखवानी है लिखवाने लगे हैं। सच की बात करने वाले झूठ के कदमों में सर झुकाने लगे हैं। टीवी सीरियल फिल्म गाने समाज को गलत दिशा दिखाने लगे हैं ज़मीर बेचने वाले धन दौलत कमाने लगे हैं। लोग खोटे सिक्कों को बार बार आज़माने लगे हैं। संसद विधानसभा में देश समाज की समस्याओं की चर्चा छोड़कर माननीय कहलाने वाले आपस में टकराने लगे हैं चाय की प्याली में तूफ़ान उठाकर अपनी ताकत को आज़माने लगे हैं। शून्यकाल में सवाल खड़े हैं जवाब खाली कुर्सियां हैं कौन सुनता है चीख पुकार आम लोग रोते बच्चे भूखे सो जाने लगे हैं। खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए , सवाल ये किताबों ने क्या दिया मुझको। धुंवा बनाके फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको , मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको। नज़ीर बाकरी जी की ग़ज़ल जगजीत सिंह की आवाज़ में हर लफ्ज़ हक़ीक़त है आज भी।
1 टिप्पणी:
Sarthk...👌👍
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