मुलाक़ात हुई क्या बात हुई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
कौन बड़ा कौन छोटा कठिन है बताना हमको क्या मतलब खाना खिलाना उनका याराना नया है मगर पुराना अच्छा लगता है साथ निभाना हम उनके पाले हुए हैं मत भूल जाना खामोश रहना है सलीके से दुम हिलाना। कुत्तों को मिलता है मिलने का बहाना कभी उसको घर बुलाना कभी चलके घर किसी के जाना। हर दिन पालने वालों की मुलाक़ात होती है उनके पाले कुत्तों की बात होती है शाम होती है आधी रात होती है। अफ़्सर की पत्नी को प्यार है टॉमी से नेता जी का शेरू लाडला है उनका दोनों की दोस्ती की अपनी दास्तां है टॉमी की नानी शेरू की सगी मां है। अफ़्सर भी लगता नेता जी का साला है बस और नहीं मालूम क्या क्या घोटाला है। कुत्तों की पहचान बड़ी है जिसके कहलाते हैं उनकी शान बड़ी है। टॉमी बता रहा है शेरू दुम को हिला रहा है किस्सा मज़ेदार है बड़ा मज़ा आ रहा है।
सच बात तो यही है अफ़्सर नेता को उल्लू बना रहा है जी सर कहकर जो चाहता पा रहा है। नेता की रग रग से वाकिफ है हां में हां मिलाकर मनमर्ज़ी चला रहा है। मज़बूरी है उनको समझा रहा है कोई अखबार वाला सवाल पूछ कर डरा रहा है। यारी निभाता सबसे सच को छुपा रहा बदले में कीमत भी पा रहा है कहते हैं जो खबर उसी को बना रहा है कभी कभी सच का पैरोकार होने का तमगा दिखा कर रोज़ अपने मतलब हासिल किये जा रहा है। अजब तमाशा है अफ़्सर भी खाता है नेता भी खाता है अखबार वाला भी भरपेट जाता है सबका सभी से अच्छा नाता है दोस्त बनकर दुश्मनी का सबक भी पढ़कर समझाता है। जब कभी खेल बनते बनते बिगड़ जाता है सरकार बदलती है सब गुड़ गोबर हो जाता है।
इक और पैसे वाला इन सभी का दाता है इशारों पर अपने सत्ता को नचाता है। नेता अफ़्सर अख़बार टीवी वाले सभी उसी के ख़ास अपने हैं। ऊंचे ऊंचे सबके अपने अपने सपने हैं वो झोली उनकी भरता है हमेशा बस उसको जैसा चाहिए करना पड़ता है कहता है समझता है हमेशा। दौलत के खिलोने हैं खेल उसका मैदान उसी का खिलाड़ी उसके सत्ता हर दिन महमान उसका। कैसे नहीं होगा पूरा हर इक अरमान उसका जब नेता अफ़्सर अख़बार टीवी सभी पर एहसान उसका। काम करते सभी उसका नहीं सामने आता नाम उसका। टॉमी शेरू से कह रहा है दरिया है ये कैसा नीचे से ऊपर को बह रहा है समंदर चुपचाप खड़ा दर्द सह रहा है। दुनिया का चलन बदल गया है आदमी कुत्ता होने को मचल गया है कुत्तों की मौज भी है कुत्तों की फ़ौज भी है। किसी को घर की रखवाली नहीं करनी है गाड़ी में बैठना है शान से जीना है अपनी जगह किसी के लिए खाली नहीं करनी है।
मालिक कौन कौन बन गया है कुत्ता सबको चाहिए अपना अपना हिस्सा। हर कोई अपने अधिकार चाहता है व्यौपार मांगता है इश्तिहार चाहता है कोई शराफ़त वाला निभाना किरदार चाहता है। दिल लगाने का सिलसिला अजीब है ये शायर है जिस में हर दोस्त रकीब है चेहरे पर नकाब है कोई कितना भी करीब है। सलीब पर सलीब है वीवीआईपी खुशनसीब आवाम बदनसीब है। इन ख़ास लोगों की हर रोज़ दिवाली है ईद है। आखिर में आर पी महरिष जी की ग़ज़ल पेश है।
बने न बोझ सफर इक थके हुए के लिए
हो कोई साथ उसके मिलके बांटने के लिए।
हज़ार देखा किया जाने वाला मुड़ मुड़ कर
मगर न आया कोई उसको रोकने के लिए।
ये हादिसा भी हुआ एक फ़ाक़ाकश के साथ
लताड़ उसको मिली भीख मांगने के लिए।
तू आके सामने मालिक के अपनी दुम तो हिला
है उसके हाथ में पट्टा तेरे गले के लिए।
ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आखिर
नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए।
बहानेबाज़ तो महफ़िल सजा रहा था कहीं
घर उसके हम जो गए हाल पूछने के लिए।
फ़क़ीर वक़्त के पाबंद हैं बड़े " महरिष "
अब उनके हाथ में घड़ियां हैं बांधने के लिए।
1 टिप्पणी:
बहुत सही।
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