वैक्सीन पे ऐतबार किया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
पहले इंतज़ार किया , नहीं खुद को बेकरार किया सोचा समझा विचार किया , फिर उनसे करार किया। इधर जाएं उधर जाएं , जाएं तो हम किधर जाएं मौत का इंतज़ार करें या मौत आने से पहले डर कर जीते जी मर जाएं। मर्ज़ी थी हमारी कुछ तो अलग कर जाएं रोग से नहीं दवा ईलाज से भी नहीं मौत आखिर आनी है इक दिन ग़ालिब कह गए चैन की नींद आएगी अभी ठहर जाएं। इतना तो तय है लोग कोरोना से क्या किसी रोग से नहीं मरना चाहते। ये फ़लसफ़ा है राजेश रेड्डी जी कहते हैं , अजब ये ज़िंदगी की कैद है दुनिया का हर इंसां , रिहाई मांगता है और रिहा होने से डरता है। यहां हर शख्स हर दिन हादिसा होने से डरता है , खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है।
चलो बताते हैं आखिर हमने वैक्सीन लगवाई तो क्या समझ कर। समझदारी वास्तव में हमने कभी की नहीं पागलपन करते रहे हैं हमेशा। दुनिया साल भर से जिसका इंतज़ार कर रही थी हमें लगता था उसे तब आना है जब उसका आना नहीं आना बराबर हो , देर से आते हैं जिनकी अहमियत होती है। खैर जैसा भी हो तमाशा अभी ख़त्म हुआ नहीं हसीना आई तो सही। कौन आशिक़ नहीं होगा जिस शोख़ अदा से नाज़ुकी से उसने नकाब हटाई और दीदार करवाया। मिलेगी उन्हीं को पहले जिनसे जन्म जन्म का नाता निभाना है उन चारगरों ने बाकी को उस से मिलवाना है डॉक्टर अस्पताल नर्सिंग-होम क्लिनिक उसका ठिकाना है।
इतना तो पता है अमर कोई नहीं है बारी बारी जाना सभी को है कोई भी जल्दी नहीं जाना चाहता जबकि हर काम में सभी सबसे पहले होना चाहते हैं। मौत के लिए लखनवी अंदाज़ याद आता है , नहीं जनाब पहले आप। मुश्किल सामने खड़ी थी फैसले की घड़ी थी टीका लगवाते तो कहते आखिर कोरोना से घबरा गए नहीं लगवाते तो ये कहते टीका लगवाने से भय खा गए। दुनिया का क्या है किसी तरह छोड़ती नहीं है। समझदार लोग कहने लगे कितने नासमझ हो लोग तरसते हैं आपको मिल रही है तब नखरे दिखलाते हैं। ताया जी के बेटे बड़े भाई कहते थे इक बात दोहराते हैं। जो भी सरकारी चीज़ मुफ्त मिलती हो ज़रूर ले आते हैं चाहे काम नहीं आये छोड़ते नहीं वर्ना पीछे पछताते हैं।
चलो विषय को अपनी तरह समझाते हैं। बहुत कुछ बहुत सोचकर बनाते हैं। केवल रोग की बात नहीं है दवाएं उपचार जाने क्या क्या आधुनिक उपकरण बनते जाते हैं। लोग स्वास्थ्य नहीं और बीमार होते जाते हैं। बाबा जी की क्या बात है योग बेचते हैं योग से निरोग बनाते हैं , मगर हर मर्ज़ की दवा वही बेचते मुनाफा कमाते हैं। कोरोना की भी इक दवा बताई थी उनकी कितनी हुई जगहंसाई थी फिर भी अपनी मनमानी चलाई थी खिलाई अपनी दवाई की कमाई थी। पुलिस थाने गली गली बढ़ते जाते हैं चोर लुटेरे अपराधी क़त्ल करते हैं नहीं पकड़ में आते हैं। संविधान की शपथ नेता हमेशा उठाते हैं मगर उसको पांव तले कुचलते रहते हैं बढ़ते जाते हैं। न्यायपलिका को छोड़ो न्याय मिलते नहीं खरीदे बेचे गवाह सबूत जाते हैं तारीख पर तारीख़ फ़िल्मी डायलॉग है सच बताते हैं। सरकार और अधिकारी समस्या को हल नहीं करते कभी रोज़ नई समस्या खड़ी करते हैं बस इसी की कमाई खाते हैं। खुद नहीं होते जनता को बतलाते हैं सही रास्ते अंधी गली से निकलते हैं खाई में गिराते हैं घर बैठे लोग बच जाते हैं। लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यों हैं , इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं। शायर राहत इंदौरी जी कहते हैं। सच तो ये है कि आजकल ऐतबार शब्द का कोई अर्थ ही नहीं रहा मगर ज़िंदगी का भरोसा नहीं है फिर भी ज़िंदा रहते हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है हमने वैक्सीन पे भरोसा किया है अब उसकी मर्ज़ी निभाती है वादा वफ़ा का कब तलक। क्यों डरें कल न जाने क्या होगा नहीं कुछ भी होगा तो तजुर्बा होगा।
बनाने वालों ने जो भी बनाया है अपना शाहकार बनाने वाले को भाया है। सरकारी कानून कितने अच्छे हैं मान जाओ अच्छे बच्चे हैं जो कंपनी दवा कोई बनाती है इसी तरह सबको समझाती है। शराब को सब खराब कहते थे काम आई वही तब लाजवाब कहते हैं हाथ अल्कोहल से लोग धोने लगे हैं। आपको सबक ये भी पढ़ाना है झूठ कहता रहा ज़माना है उनको भला और क्या चाहिए जिनको शराब मिलती मिलता मयख़ाना है। दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या , ये बोझ अगर दिल से उतर जाये तो अच्छा। शराब सरकार को कितनी अच्छी लगती है जब ख़ज़ाना भरती है नशा शराब में नहीं सत्ता और पैसे दौलत में भी होता है मगर अच्छा लगता है जिनके नसीब में होता है। अकबर इलाहाबादी कहते हैं , नातजुर्बाकारी से वाइज की ये बातें हैं , इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें