किस तरह कहें यहां कुछ भी नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
किस तरह कहें यहां कुछ भी नहीं
जो कही वो दास्तां कुछ भी नहीं ।
लो सुनो गरीब कहने लग गए
झूठ है वो आस्मां कुछ भी नहीं ।
राख में कहीं चिंगारी है अभी
तुम समझ रहे धुआं कुछ भी नहीं ।
झूठ बोलती रही सरकार है
रौशनी कहां निशां कुछ भी नहीं ।
बात आपकी नहीं साबित हुई
क्या है आपका बयां कुछ भी नहीं ।
दोस्त हम रकीब कैसे बन गए
ऐतबार दरमियां कुछ भी नहीं ।
छोड़कर सभी गए "तनहा" मुझे
रह गया है अब जहां कुछ भी नहीं ।
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