अब नहीं तो कब समझोगे ( सियासत की हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया
अमेरिका में जो हुआ उसको खराब बताना ही काफ़ी नहीं है सीख सको तो इक सबक वहीं से सीखा जा सकता है। जो लोग देश से पहले किसी नेता व्यक्ति अथवा नायक के लिए वफ़ादारी रखते हैं कभी भी देश की व्यवस्था को चौपट कर उसकी प्रतिष्ठा को शर्मसार कर सकते हैं। खुद को विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र बताने वाला देश को कलंकित करता है खुद ही जब न केवल जनमत को स्वीकार नहीं करते सत्ताधारी शासक बल्कि देश के सबसे बड़े पद पर खड़ा नायक ख़लनायक बनकर खुद ही अराजकता की बात करता है। सोचो जिसको कितने लोगों ने सर पर बिठाया उसकी वास्तविकता क्या सामने आई है कुर्सी छोड़ना जिसको जान जाती है लगता है ऐसे लोग देश समाज की भलाई कभी नहीं समझते हैं। हमारे देश में भी ऐसा ख़तरनाक वातावरण है बहुत लोग किसी नेता को देश से पहले समझने का अक्षम्य अपराध करते हैं। हम अंधे नहीं हैं हमने भी ये सब चुपचाप देखा है देश संविधान संस्थाओं संसद से सर्वोच्च न्यायलय तक को तहस नहस बर्बाद कर सब कुछ किसी एक नेता का हथियाना और हम मूर्ख बनकर नारे लगाते रहे किसी नाम की जय जयकार करते हुए। कितनी हास्यसपद बात है अमेरिका में जो गलत समझ आता है खुद अपने देश में समझना नहीं चाहते हैं। चलो अमेरिका अन्य देशों को छोड़ खुद अपने देश की बात करते हैं। तिरंगा फहराने और सारे जहां से अच्छा गाने से कोई फायदा नहीं अगर हिन्दुस्तान को वास्तव में दुनिया से बेहतर और अच्छा बनाना ज़रूरी नहीं लगता है।
सरकार किसी नेता किसी राजनैतिक विचारधारा वाली रही हो जो बात नहीं बदलती कभी वो उनका तौर तरीका और शासन का ढंग। सत्ता के पास हमेशा दोहरे मापदंड रहते हैं कभी किसी ने खुद नियमों का पालन किया नहीं है। जब भी चाहा नियम कानून खुद ही बदलते रहते हैं कोई उनको रोक नहीं सकता है। आप देश के नागरिक अपने घर मकान दुकान को अपनी ज़रूरत को देख कर बदलाव करना चाहें तो उनका डंडा उनके नियम जुर्माना लगाने से आपको अपराधी घोषित करने का काम किया जा सकता है। जबकि खुद सरकारों ने कभी भी अपने ही बनाये नियमों कानून का पालन नहीं किया है। और ये अंधेरनगरी चौपट राजा की मिसाल आपको हर जगह अपने गांव नगर शहर में साफ दिखाई देती है। ये सबसे बड़ी लूट है जब जिनको फायदा पहुंचना किसी ज़मीन का उपयोग बदल कर आवासीय से वाणिज्यक या उद्योग से लेकर धर्मस्थल धर्मशाला की आड़ में बाज़ार बनते जाते हैं जबकि ये नियम है कोई धर्मशाला या स्कूल या अस्पताल के नाम पर सरकारी ज़मीन लेता है तब उसका व्यवसायिक उपयोग या मनमानी लूट नहीं कर सकता है। हमने कभी सोचा जाना ही नहीं कि किसी विभाग को भी अपनी दफ़्तर की जगह बदलाव करने का कोई अधिकार नहीं है उसको निर्माण करने वाले विभाग की अनुमति से कुछ बदलाव करने का नियम भी है।
शायद सरकारी फाइलों और बंद दरवाज़ों के पीछे सत्ता की मनमानी का खेल हर कोई जानता है। आपने भी शायद कभी सरकारी ज़मीन पार्क निजी उपयोग के लिए आबंटित करवाना चाहा हो सस्ते दाम पर। वास्तव में देश को लूटना और बर्बाद करना है जो कोई भीड़ बनकर संस्था संघठन बनाकर लोग करते हैं। शासन करने वालों की सुविधा या ज़रूरत अथवा सुरक्षा का नाम लेकर सब नियम कायदे ताक पर रखे जाते हैं उनकी मनचाही बात करने को। जनता के सर पर तलवार लटकती रहती है खुद अपनी ज़मीन घर दुकान जब कोई ज़रूरत हो बदलाव करना संभव नहीं होता है। जो विभाग सभी पर नियम लागू करता है खुद उसी ने अपने नियम ही नहीं स्वीकृत प्लान को कितनी बार बदला है। जैसे सरकार विभाग समय के साथ बदलाव करते हैं अपनी जगह को लेकर ठीक उसी तरह आम नागरिक को उचित ढंग से बदलाव करने की छूट होनी चाहिए। लेकिन उनको इस के लिए लालफीताशाही और रिश्वतखोरी का शिकार होना पड़ता है जीने का अधिकार आसानी से नहीं मिलता है।
समस्या रोज़ सरकार द्वारा नियम कानून बनाते जाना और जब मर्ज़ी बदलते रहना है। अधिकांश नियम कानून अनावश्यक और अतार्किक हैं। आपने घोषित किया और पार्क से कुछ और बन गया इतना ही नहीं सामुदायिक उपयोग की जगह सरकार नागरिक की अनुमति की ज़रूरत नहीं हथिया लेती है। ये उल्टी गंगा बहाना है जिन्होंने सरककर बनाई उन्हीं को जंज़ीरों में जकड़ना और खुद खुला सांड बनकर विचरते रहना खेत को चरना ही नहीं सांडों की लड़ाई में फसल बर्बाद होती है। उनके इक दिन किसी जगह आने जाने पर कायदे कानून की अर्थी निकलती है बड़ी शान से। यकीन मानिए इनकी असलियत की ये छोटी सी मिसाल है अन्यथा सत्ता ने किया समाज देश कानून का बहुत बुरा हाल है। कहते हैं जिसको पर्वत वास्तव में पाताल है। ये सिलसिला लंबा है कहां तक ढोल की पोल खोली जाए। लेकिन आपको बताना ज़रूरी है कि अमेरिका मेंशासक को संविधान में ये भी अधिकार है कि वो अपने किये गए तो क्या भविष्य में उसके खिलाफ दर्ज होने वाले अपराध भी खुद माफ़ कर सकता है। सरकारों सत्ताधारी नेताओं बड़े ओहदेदारों से न्यायपालिका तक सभी अपने गुनाहों को अपराध नहीं अधिकार मानते हैं। आप धर्म वालों और टीवी अख़बार मीडिया वालों को भी धनवान पैसे वालों के साथ ऐसी सुचि में जोड़कर देश की तस्वीर समझ सकते हैं। वास्तव में यहां कानून जनता की भलाई के लिए नहीं सत्ता की मनमानी और दहशत कायम रखने को बनाये जाते हैं। जो नियम कानून नागरिक को आसानी और सुरक्षा की नहीं भयभीत करने को बने हैं उनका कोई औचित्य नहीं है। सबसे पहले शासक को नैतिकता ईमानदारी और सभी से न्यायपूर्वक समान व्यवहार स्थपित करने वाले कायदे खुद पालन करने की ज़रूरत है। बस बहुत हुआ कदाचार आखिर हासिल हों जन जन को मौलिक जीने के अधिकार।
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (10-01-2021) को ♦बगिया भरी बबूलों से♦ (चर्चा अंक-3942) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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यथार्थ पर प्रहार करता सटीक चिंतन।
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