दिसंबर 05, 2020

सावधान ये ख़तरनाक मोड़ है ( गुलामी की जंज़ीरें ) डॉ लोक सेतिया

  सावधान ये ख़तरनाक मोड़ है ( गुलामी की जंज़ीरें ) डॉ लोक सेतिया

शायद बहुत कम लोग हैं जिनको आज़ादी की जंग के इतिहास से पहले विदेशी राज की इतिहास की नज़रों ने वो मंज़र भी देखा है दो सौ साल तक की गुलामी की दास्तां मालूम होगी। देश आज फिर से करीब तीन सौ साल पुराने हालात के ख़तरनाक मोड़ पर खड़ा लग रहा है। फर्क तब राजशाही थी बाप दादा की विरासत में गद्दी मिलती थी और सिंहासन मिलते कोई मालिक बन जाता था और राज्य की जनता उसकी गुलाम जिसे शासक के आदेश का पालन करना होता था और उसके ज़ुल्म उसके फैसले सर झुककर मानने पड़ते थे। क्योंकि उन में से बहुत शासक वास्तव में काबिल नहीं होते थे इसलिए विदेशी चालाक शासक उनको आसानी से अपनी चालों का शिकार बना लिया करते थे और हिंदुस्तान जो कुदरती संपदा का भंडार था और सोने की चिड़िया कहलाता था उनके हाथ की कठपुतली बन कर खुद लुटने को तैयार हो गया था। आपने ईस्ट इंडिया कंपनी नाम अवश्य सुना होगा जो महमान बनकर कारोबार करने आये थे और उसके बाद धीरे धीरे एक एक कर के राजाओं जागीरदारों को अपने बिछाए जाल में फंसाते गए। और हमारे देश के वास्तविक राजाओं को बेबस और बेचारे बना कर उनके नाम पर सत्ता का मनमाना इस्तेमाल करते रहे। अफ़सोस है कि हमने लगान फ़िल्म को देखा है मगर मनोरंजन की नज़र से या अभी रानी पद्मावती पर बनी फिल्मों को देखते समय इतिहास की सच्चाई को समझने की जगह इक सिरफिरे आशिक़ की नाकाम इश्क़ की कहानी से अधिक कुछ नहीं समझा। 
 
 शायर मुज़फ़्फर रज़्मी ने कहा है " ये ज़ब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने , लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई "। लगता है कुछ उसी तरह का और शायद उस से बढ़कर आज हो रहा है। देश उनकी बाप दादा की विरासत नहीं है आज़ादी हासिल करने को सौ साल तक लड़कर कितनी कुर्बानियां देकर जंग लड़नी पड़ी है ये उनको नहीं समझ आएगा जिन्होंने या जिनके पुरखों ने गुलामी को आज़ादी से बेहतर समझा था और जो आज़ादी के लिए लड़ते थे उनकी मुखबिरी और जासूसी किया करते थे। जिनको कुछ लोग महान घोषित करते हैं उन्होंने विदेशी शासकों के सामने सर झुकाकर लिखित माफ़ीनामे दिए थे। इतना ही नहीं उन्होंने आज़ादी का और देश के तिरंगे का भी आदर तब तक करना ज़रूरी नहीं समझा था जब तक उनकी विचारधारा के राजनेता सत्ता पर बैठ नहीं गए थे। मगर हमारी सभ्यता और परंपरा बड़ी बड़ी गलतियों को भाईचारे और एकता की खातिर माफ़ कर देने की रही है अन्यथा जो देश के संविधान की धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की बात स्वीकार नहीं करते उनको देश की राजनीति में जगह मिलनी कठिन थी। 
 
आज ये सब दोहराने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि जो ज़ख़्म मिले थे अपने ही देशवासिओं के दिए भरने के बाद कुरेदना पीड़ादायक है। लेकिन इतिहास को दोबारा उसी गुलामी की राह पर जाते नहीं देखा जा सकता है। आपको क्या लगता है सरकार सब कुछ ख़ास धनवान लोगों को देने या बेचने अथवा लंबी अवधि तक किराये या पट्टे पर दे कर देश को कुछ लोगों के पास बंधक बना कर अच्छा काम कर रही है। लेकिन सरकारी संस्थान और संम्पति पर अधिकार पाकर भी उनका इरादा देश की सबसे बड़ी संपदा ज़मीन को हथियाना साफ नज़र आने लगा है। ये देश कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था है और तीन चौथाई जनता खेती मज़दूरी जैसे कार्यों से जीवन यापन करती है। जैसा डर लग रहा है सरकार कृषि को मुनाफ़ाखोर लोगों के हाथ जाने देना चाहती है किसान की आवाज़ को अनसुना कर अथवा बहला फुसलाकर कोई झुनझुना देकर समझौते के नाम पर तब सिर्फ किसान बर्बाद होंगे ये मत समझना हमारी आपकी सभी की बारी आएगी ये तय है। पर क्या टॉलस्टॉय की कहानी हाउ मच लैंड ए मैन नीड्स की तरह उनकी लालच की कोई सीमा नहीं है। और इसके आगे जो हो सकता है उसकी कल्पना लगता है सत्ताधारी राजनेताओं को अभी नहीं है।  
 
चलो आपको आगे ले चलते हैं दस बीस तीस साल बाद मैं नहीं रहूंगा कुछ और भी हम में नहीं देख सकेंगे मगर जिस दिशा को राजनीति आगे बढ़ रही है अंदेशा यही है। अधिकांश ज़मीन के मालिक बेशक नहीं बने होंगे मगर खेती किसानी और खाने पीने की सभी वस्तुओं अनाज के भंडार कुछ अमीर धनवान लोगों के पास उनकी मलकियत होंगे। उस के बाद किसान से गुलाम बंधुआ मज़दूर की तरह विवश होकर काम के बाद उनकी नज़र देश को अपने कब्ज़े में लेना हो सकता है। उनकी कठपुतली बनकर लोग चुनाव लड़ेंगें जीतेंगे और संसद विधानसभाओं में बैठकर सरकार बनाएंगे चलाएंगे। जिस तरह अमरीका में निर्वाचित लोग लॉबी बनकर कानून के समर्थन या विरोध करने तक ही बात नहीं है बल्कि सर्वोच्च अदालत के न्यायधीश तक किसी राजनैतिक दल के हित को देखकर फैसले करते हैं। ये अच्छा है कि वहां लोग शिक्षित हैं और मुखर होकर विरोध करते हैं साथ वहां का मीडिया निडर और निष्पक्ष है इसलिए बेशर्मी से कुछ भी करना उतना सहज नहीं है। मगर भारत जैसे देश में पुलिस आज भी न्याय व्यवस्था कायम रखने का कर्तव्य छोड़ कर अपने देश के नागरिकों का दमन करती है शांतिपूर्वक विरोध करने नहीं देती है।  
 
चिंता इस बात की है कि आज कोई लोकनायक जयप्रकाश नारायण तानशाही के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं है और कोई दूसरा महात्मा गांधी फिर नहीं मिलेगा देश को आज़ाद करवाने को। आज जो सत्ता पर विराजमान हैं वो जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने का काम कर रहे हैं।   सिर्फ किसान की ज़मीन की नहीं हमारे पांव के नीचे भी ज़मीन नहीं बचेगी सावधान। समझ रहे हैं हम जिस सुरंग से गुज़रने वाले हैं वो मंज़िल तक पहुंचने का छोटा और आसान रास्ता है मगर वास्तव में हम ऐसी अंधी गली में जा रहे हैं जो कहीं उजाले की तरफ नहीं निकलेगी बल्कि इक खाई में लेजाकर ख़त्म करेगी। ये किसी राक्षस की मायाजाल की जैसी कथाओं की बात है।