दिसंबर 12, 2020

प्रभाष जोशी जनसत्ता और मेरा निडर होकर लिखना ( संस्मरण ) डॉ लोक सेतिया

प्रभाष जोशी जनसत्ता और मेरा निडर होकर लिखना ( संस्मरण )

                                          डॉ लोक सेतिया

 मैंने लिखना किसी से नहीं सीखा बहुत अधिक किताबें भी नहीं पढ़ पाया। पहले दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस अख़बार पढ़ना अच्छा लगता था फिर जब फतेहाबाद हरियाणा आकर रहने लगा तब हिंदी में जनसत्ता अखबार शुरू हुआ दिल्ली से उस को पढ़कर इतना अच्छा लगने लगा कि नहीं मिलता तो जाकर बस अड्डे से खरीद लाता क्योंकि चैन नहीं आता था। पहले जनसत्ता की शुरुआत की कहानी बताना चाहता हूं रामनाथ गोयनका जी ने पहले 1932 में अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस की शुरुआत की थी मगर हिंदी का अखबार निकालना उनको ज़रूरी तब लगा जब अपनी गांव की बहन के पति से इंदौर में मिले। उन्हें महसूस हुआ कि इतना काबिल होनहार विचारवान व्यक्ति इक छोटे नगर में गरीबी जैसी हालत में रहता है उन्होंने प्रभाष जोशी को दिल्ली आने को कहा मगर जोशी जी हिंदी में लिखते थे और गोयनका जी का अख़बार इंग्लिश में छपता था उनको जिस में कोई रूचि नहीं थी। अपने कॉलम में उन्होंने बताया कि मुंहबोली बहन से गोयनका ने कहा अपने पति को दिल्ली आने को मनवा लो नहीं तो ये आपके बच्चों को भूखा रखेगा। जब गोयनका ने उनके घर आना था जोशी जी के पास इक कुर्सी बैठने को थी मगर उसकी भी एक टांग कभी भी गिर सकती थी। गोयनका जी को हिंदी का अखबार निकालना था अथवा निकाला प्रभाष जोशी जी को दिल्ली बुलाने को। 
 
मैंने जनसत्ता में अपनी बात लिखनी शुरू की पाठक वर्ग के लिए चौपाल कॉलम होता था जिस में निष्पक्षता से सभी मत छपते थे। चालीस साल के अनुभव में मैंने उस जैसा कोई और अखबार या मैगज़ीन नहीं देखा जो अपने खिलाफ लिखी कड़वी बात को न केवल छापता था बल्कि उसका जवाब भी देता था। दो ऐसी बातों का उल्लेख करना चाहता हूं , कभी कभी मरे खत संपादक के नाम नहीं खुद मुख्य संपादक प्रभाष जोशी जी को संबोधित होते थे। बात हर्षद मेहता के घोटाले और उसके नरसिंहराव को एक करोड़ देने के आरोप की थी , क्योंकि नरसिंहराव जी से जोशी जी के संबंध अच्छे थे कांग्रेस से विरोध के बावजूद भी , जब इस विषय पर उनके संपादकीय में कुछ नहीं लिखा गया तब मैंने उनको संबोधित कर इक खत लिखा और कहा कभी कभी आपकी आवाज़ खामोश क्यों हो जाती है कागद कारे में बेबाक सच लिखने को स्याही कम पड़ गई है क्या। 
 
आज ये याद उनकी इक बात से आया है जो वास्तव में सच साबित हो रही है। रविवार को उनका संपादकीय छपा था जिसकी शुरआत इन शब्दों से की थी। " फतेहाबाद के डॉ लोक सेतिया लिखते रहते हैं कभी कभी मुझे और अधिकतर चौपाल में। " उन्होंने सिलसिलेवार ढंग से मेरी लिखी बात का विस्तार से जवाब दिया था ऐसा कभी नहीं देखा आज तक भी कि कोई लेखक अथवा पाठक अखबार को कटघरे में खड़ा करे और संपादक उसकी अहमियत समझ अपनी चुप्पी तोड़ने को विवश हो। उनकी इस बात पर साधुवाद ज़रूरी है साथ उनकी इक बात को दोहराना भी। उन्होंने लिखा था लोक सेतिया जी ये आने वाला समय बताएगा कि जिस दिन उसको सत्ता मिलेगी भाजपा वाले निष्पक्ष लोगों से क्या बर्ताव करेंगे। आज देख रहे हैं उनके विरोध करने वालों को सच बोलने पर किस तरह देश और समाज का दुश्मन साबित करने का काम किया जाने लगा है उनके अभिमत को समझने की ज़रूरत ही नहीं बल्कि उनके ख़िलाफ़ नफरत फैलाकर उनका अपने ही देश गांव शहर में जीना दुश्वार किया जाता है। बेशक भातीय जनता पार्टी के लोगों से निष्पक्षता पूर्वक सच बोलने वालों को रत्ती भर उम्मीद नहीं है। प्रभाष जोशी जी की तरह मैंने कांग्रेस का समर्थन कभी नहीं किया न ही किसी और राजनैतिक दल का समर्थन या विरोध करता हूं। सत्ता के अनुचित उपयोग का जमकर विरोध किया है। 
 
इक और बात बताना चाहता हूं जनसत्ता में जोशी जी ने तब शहरी आवास मंत्री शीला कौल के संसद में दिए ब्यान को उचित ठहराया था। शीला कौल जी ने विचार व्यक्त किया था कि जिन बहरी लोगों का राजधानी दिल्ली में कोई काम नहीं उनको दिल्ली छोड़ वापस चले जाना चाहिए। प्रभाष जोशी ने संपादकीय में लिखा था उनको अपना काम नहीं रहने पर एक दिन भी दिल्ली में रहना मंज़ूर नहीं होगा। शीला कौल और जोशी जी दिल्ली को रहने लायक नहीं जगह बता रहे थे। मुझे दिल्ली से लगाव है प्यार है सात साल रहा हूं इसलिए मैंने अपने पैड पर इक खत या चिट्ठी दोनों तरफ लिखी और भेजी थी दिल की भड़ास निकाल कर। उचित था या अनुचित नहीं मालूम मगर मैंने लिख ही दिया था आप लोग दिल्ली से ही सब कुछ पाते हैं फिर भी दिल्ली को गरियाते हैं मगर मेरी चुनौती है और मुझे विश्वास है आप कहते हैं मगर दिल्ली को छोड़कर जाओगे नहीं कभी। हैरानी हुई थी मुझे उन्होंने मेरा लिखा खत वापस भेज दिया था ऊपर एक लाइन टिप्पणी लिखकर " ज़रूरी नहीं कि आपको हर बात समझ आ जाए। "
 
मैंने हमेशा मिलने वाले खत संभाल कर रखे हैं। बाद में खबर छपी थी शीला कौल ने अख़बार वालों को दिल्ली में बसने को प्लॉट्स वितरित किये थे अनुचित ढंग से नियम बदल कर। किस किस को फायदा पहुंचाया विवरण छपा था अख़बार में। मैंने उन का मुझे वापस लौटाया मेरा खत फिर से भेजा था उनकी टिप्पणी का जवाब दिया था " मुझे अब आपकी बात समझ आई है। आपत्काल को लेकर इंदिरा गांधी ने बाद में दूरदर्शन के निदेशक कमलेश्वर को बताया था उनको किस बात की चिंता थी। मैंने हमेशा जयप्रकाश नारायण जी की सोच को सही माना है और सत्ता की दलगत राजनीति से हटकर जनहित की बात लिखी है। इमरजेंसी में भी लिखता रहा और बाद में बदलते हालात में सभी विषयों पर। इतना ही नहीं जब कोई संपूर्ण क्रान्ति के नाम पर अथवा कोई और अन्ना हज़ारे के लोकपाल बनाने के नाम पर राजनीति में अपनी जगह बनाने का मकसद लेकर 
 काम करने लगे तब उनका भी सच खुलकर लिखा। जो सत्ता की दलाली और रिश्वतखोरी करते थे ईमानदारी पर भाषण देने और अपशब्दों का उपयोग कर व्यक्तिगत आक्षेप लगाकर किसी को बदनाम कर रहे थे उनका साथ नहीं देना स्वीकार किया। मेरा लिखना कोई फायदे का व्यवसाय नहीं था और न कभी हो सकता है। 25 जून 2018 को आपत्काल को लेकर कमलेश्वर जी ने आज तक टीवी चैनल पर चर्चा की जो नीचे उनके कहे शब्द लिख रहा हूं। मुझे पढ़ने वालों के अतिरिक्त कई ऐसे लोगों ने भी धारणा बनाई हुई है जिन्होंने मुझे पढ़ा ही नहीं कभी। शायद इस पोस्ट को पढ़कर उनको मेरी पहचान हो और उनकी धारणा बदल सकती है लेकिन मेरा उनसे कोई अनुरोध नहीं है कि मेरी किसी भी बात का समर्थन करें या असहमत नहीं हों जो मैंने खुद नहीं किया किसी को भला कैसे कह सकता हूं।
 

कमलेश्वर ने क्या बताया था ?

खुद कमलेश्वर को इस बात का भरोसा नहीं था कि क्यों इंदिरा उन्हें ये जिम्मेदारी देना चाहती हैं. 

कमलेश्वर ने बताया था कि दूरदर्शन के एडीजी पद के लिए इंदिरा सरकार के प्रस्ताव से वो हैरान थे. 

इस सिलसिले में जब कमलेश्वर इंदिरा के सामने पहुंचे तो उन्होंने पूछा- 

"क्या आपको मालूम है कि मैंने ही 'आंधी' लिखी थी? " 

इंदिरा का जवाब था- "हां, पता है." तुरंत ही उन्होंने यह भी कहा- "इसीलिए आपको ये जिम्मेदारी 

(दूरदर्शन निदेशक) दे रही हूं." इंदिरा ने कहा- 

"ऐसा इसलिए ताकि दूरदर्शन देश का एक निष्पक्ष सूचना माध्यम बन सके." कमलेश्वर ने दूरदर्शन के लिए दो साल तक काम किया. 


 

 

3 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

जो सत्ता की दलाली और रिश्वतखोरी करते थे ईमानदारी पर भाषण देने और अपशब्दों का उपयोग कर व्यक्तिगत आक्षेप लगाकर किसी को बदनाम कर रहे थे उनका साथ नहीं देना स्वीकार किया। मेरा लिखना कोई फायदे का व्यवसाय नहीं था और न कभी हो सकता है।
यही एक सच्चे लेखक का धर्म है
बहुत अच्छी प्रस्तुति
आज प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पहले जैसी बात बहुत ही कम देखने को मिलती है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-12-2020) को   "मैंने प्यार किया है"   (चर्चा अंक- 3914)    पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
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सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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Sanjaytanha ने कहा…

नमन आपकी इस निडरता और निष्पक्षता को...एक लेखक का यही कर्तव्य है👌👌