अब जनता की बारी ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
दुष्यन्त कुमार के शेर से बात शुरू करते हैं। पहले उनके साथ अन्य शायर कवि की रचनाओं की बात समझते हैं फिर उसके बाद विषय पर चर्चा करेंगे। ये करने का कारण है कि पहले बिमारी क्या है इसे पहचानते हैं तभी उसको ठीक करने का ईलाज ढूंढ सकेंगे। शेर अर्ज़ हैं :-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ,
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को ,
ये एहतिहात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ।
मत कहो आकाश में कुहरा घना है ,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो ,
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो।
किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में ,
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो।
पुराने पड़ गए डर फ़ेंक दो तुम भी ,
ये कचरा आज बाहर फ़ेंक दो तुम भी।
गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में ,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।
तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं ,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।
दुष्यन्त कुमार के बाद अल्लामा इक़बाल की शायरी से कुछ ख़ास अल्फ़ाज़ :-
उठाकर फ़ेंक दो बाहर गली में ,
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गंदे।
इलेक्शन मिंबरी कौंसिल सदारत ,
बनाए खूब आज़ादी के फंदे।
इस राज़ को इक मर्दे-फिरंगी ने किया फ़ाश ,
हरचन्द कि दाना इसे खोला नहीं करते।
जमहूरियत इक तर्ज़े-हुकूमत है कि जिसमें ,
बन्दों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।
जांनिसार अख्तर के भी कुछ बेमिसाल शेर हाज़िर करता हूं :-
जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए ,
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए।
किस की दहलीज पे ले जाके सजाएं इसको ,
बीच रस्ते पे कोई लाश पड़ी है यारो।
हरेक शख़्स परेशानो दरबदर सा लगे ,
ये शहर मुझ को तो यारो कोई भंवर सा लगे।
इन्कलाबों की घड़ी है ,
हर नहीं हां से बड़ी है।
सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है ,
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है।
अब विषय पर चर्चा करते हैं। संविधान कानून कितनी संस्थाएं पुलिस अदालत सरकारी विभाग उनके बदलते अंदाज़ तौर तरीके। मकसद था जनता समाज को राहत मिलती भूख गरीबी शोषण का अंत होता वास्तविक आज़ादी समानता निडरता से जीवन जीने को अधिकार मिलते , कोई खैरात नहीं। हालत खराब से बदहाल होती गई है क्योंकि शासन पर बैठने वाले नेताओं अफ्सरों को खुद अपने अधिकार सुख सुविधाओं की चाहत रही मगर कर्तव्य निभाने को लेकर कभी नियम कायदा बनाया ही नहीं। ये कीमत मनचाही मुंहमांगी और बदले में देना कुछ भी नहीं केवल झूठे दिलासे लालफीताशाही और बनावटी आंकड़े। कितने संशोधन कितने नये नियम कानून सभी आम नागरिक देश की जनता को पालन करने को सत्ता पर कोई अंकुश कोई लगाम नहीं लगाई जा सकती है।
समय आ गया है कि उनके मनमाने नियम कानून रद्द किये जाएं और जनता के बनाये कायदे कानून लागू किये जाएं जिन में अपने द्वारा निर्वाचित विधायक सांसद और नियुक्त पदाधिकारी कर्मचारी को नियत अवधि में सही मायने में उचित सेवाएं और कार्य करने ज़रूरी ही नहीं बाध्यकारी भी होने का विधान हो। नहीं करने पर दंडित करने और हटाने का भी नियम हो। राज किसी नेता या राजनितिक दल का कदापि नहीं होना चाहिए बल्कि जनता का शासन हो ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
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सुन्दर
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