देखते रह गए दूर से ज़िंदगी ( सफ़रनामा ) डॉ लोक सेतिया
मुझे याद है वो पल जब मैंने खुद इक दिन
उसकी नर्म आगोश में समा जाना चाहा था
मगर न जाने क्यों कोई मसीहा बनकर आया
मुझे बड़े प्यार से हाथ थामकर समझाया था
अंधेरा रात भर का है होने वाली है भोर नई
मेरे मन के दीपक को बनकर उजाले की किरन
आशा का दीप जलाया था इक सितारा था वो
घने अंधकार में भी जीने की राह ढूंढ लाया था।
वो जगमगाता सितारा वो उजाले की किरन भी
खो गई ज़िंदगी के सफर में चलते हुए इक दिन
मैंने लेकिन निभाया जीने का वादा उसकी कसम
मुश्किलों से टकराता रहा साहस नहीं छोड़ा कभी
कितनी बार मौत ने मुझे पास अपने बुलाया और
हर बार मैंने उससे दामन अपना बचाया बार बार
उसने अपनी बाहें फैलाईं मुझे गले लगाने को जब
अभी रहने दो मिलेंगे कुछ करना है खोना पाना है
बहुत थोड़ा है फ़ासला मौत और ज़िंदगी के बीच
तय होता नहीं वो भी चाहने बुलाने नहीं आने से
ये ख़्वाहिश उस हसीन घड़ी से मिलन की जीते हैं
जाने क्या क्या सपने बुनते हैं नहीं पूरे होते मगर।
शायद हमने समझा ही नहीं मौत की मुहब्बत को
ज़िंदगी के दुःख दर्द ज़ख़्म परेशानी आशा निराशा
सभी चिंताओं से मुक्त करती है सुकूं देती है वही
कौन करता है किसी का इंतज़ार जीवन भर ऐसे
इक वही है जो हमको अपनाती है गले लगाती है
सभी रिश्ते नाते जाते छूट रूह और जिस्म वाले
बस इक वही है वादा अपना निभाती है हर हाल
ज़िंदगी कब तलक साथ देती है तोड़ देती नाता
मौत आती है वफ़ा निभाने को अपनी चाहत की
ज़िंदगी बेवफ़ाई है मौत लेकिन बेवफ़ा नहीं होती।
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर।
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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