झूठ की बुनियाद पर बनाया गया था ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
इस कदर बुलंद इमारत खण्हर कैसे बन गई पुरातत्व विभाग के जानकर अचंभित हैं। शिलालेख का पत्थर घोषित कर रहा है अभी सौ साल भी नहीं हुए जबकि भवन निर्माण किया गया था हज़ारों साल तक की अवधि को निर्धारित करते हुए। खुदाई में अजब बात सामने आई कि नींव की हर ईंट पर कुछ खुदा हुआ था जो अच्छी तरह से दूरबीन के लैंस से बहुत साफ करने पर पढ़ा गया तो हर ईंट पर झूठ झूठ लिखा हुआ था। ऐसा कभी देखा न सुना था कि कोई इमारत का निर्माण झूठ झूठ लिख कर नींव के पत्थर लगाकर खड़ा करे। किसी शायर ने अवश्य कहा था " दर और दरीचों के लिए सोच रहा है , वो कांच की बुनियाद पे दीवार उठाकर "। अचानक ब्लैक एंड वाइट फिल्मों के दृश्य की तरह कोई सैंकड़ों साल का बूढ़ा पुजारी हाथ में जलता हुआ चिराग़ लिए सामने चला आया और अजीब से आवाज़ में कहने लगा चले आये मुझे कब से इंतज़ार था। आपको जो समझना है जानना है मुझे सब मालूम है आपको खुदाई से कुछ भी नहीं समझ आएगा समझने को इस की वास्तविक कहानी को जानना ज़रूरी है। सबसे पहले कसम उठाओ ये कहानी जाकर सभी को सच सच सुनाओगे कुछ नहीं जोड़ेगे कुछ भी नहीं घटाओगे। चलो खामोश होकर सुनते जाओ ये कहानी नहीं वास्तविकता है।
ये इक मंदिर था जिसको बनाने को धर्म राजनीती और न्यायपालिका ने मिलकर वर्षों तक तमाम तरह से कोशिशें की थी। धर्म के नाम पर लोगों को भीड़ बनाने को भावनाओं को भड़काने से लेकर नियम कानून को ताक पर रखने की खातिर सच को झूठ झूठ को सच बताया गया। न्यायपालिका से संविधान तक की अवमानना और शपथ उठाकर निभाना नहीं सब अनुचित अनैतिक आचरण किया गया तथाकथित बड़े बड़े भगवान के भक्तों द्वारा। सालों साल अदलती जंग और नफरत की स्वार्थ की राजनीति की रणनीति की जीत हुई और मंदिर का निर्माण किया गया। इस बीच किस किस ने कितने झूठ अदालत में सभाओं में और संसद विधानसभाओं के सदन में बोले उनका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता है। मगर जब शुरुआत हुई तब भी शुरुआत करने वाले ने अपने पिछले झूठ पर झूठ बोलने के इतिहास को आगे बढ़ाते हुए सदी का सबसे बड़ा झूठ बोला कि उसने कितने साल पहले ये शपथ ली थी कि मुझे ही ये शुभ कार्य करना है इक दिन और तब तक चैन से सोना है न हंसना है न रोना है , यही मकसद मेरी छत है मेरा बिस्तर है बिछौना है।
सबने देखा उसने बुनियाद का पत्थर लगाया जिस पर सच गया था लिखवाया , मगर ये कोई भी नहीं देख पाया कि जो जो पत्थर उसने अपने करकमलों द्वारा लगाया कुदरत ने अपना करिश्मा दिखाया। सच लिखा मिट जाता था झूठ खुद ब खुद उभर आया। आपने देखा होगा हर ईंट पर अंकित झूठ ही झूठ पाया बस झूठ कितना बड़ा होता आखिर नहीं टिक पाया हवा सच की चली ज़रा तो झूठ थरथराया ऊंचे आसमान से नीचे ज़मीं पर गिरता चला आया। झूठ के पांव नहीं होते सभी जानते हैं झूठ की बुनियाद पर भवन नहीं टिकते हैं ये समझाना ज़रूरी है। जाने कितनी बार कितने शासक आये और किसी पुरानी इमारत को ध्वस्त कर खुद इक नई आधारशिला लगवा बना चले गए ये सिलसिला चलता रहा है शायद अभी भी जारी रहेगा। आप सभी किसी नये शासक की कठपुतली बनकर आये हैं वही लिखोगे जो भी आपका आका लिखने को कहेगा। सच नहीं लिख पाओगे फिर इक और झूठ साबित करोगे सच है और जैसे आये हो चले जाओगे। इस बार कोई और नाम वाला पत्थर लगवाओगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा लाओगे फिर से शोर मचाओगे। देखो कुछ देर को तेज़ आंधी तूफ़ान आने को है वापस अपने ठिकाने पहुंच जाओ नहीं तो तिनकों की तरह बिखर जाओगे।
1 टिप्पणी:
अच्छा व्यंग्य है👌
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