अक्तूबर 04, 2019

जम्हूरियत की हक़ीक़त ( चुनाव की बात ) डॉ लोक सेतिया

   जम्हूरियत की हक़ीक़त ( चुनाव की बात ) डॉ लोक सेतिया 

      असली कहानी कुछ और ही है। आपको अपनी पसंद से कोई विधायक सांसद नहीं चुनना है। सच तो ये है कि आपको बस इक दिन की बादशाही का आनंद उठाना है मगर आपकी पसंद नहीं होने होने का कोई अर्थ नहीं है। मान लो आधे से अधिक लोग नोटा पर उंगली दबा आएं तब भी जो खड़े हैं उन्हीं से जिसे अधिक मत मिले विजयी घोषित किया जाएगा जबकि मतलब होगा जनता किसी को नहीं चुनना चाहती है। शायर को भी इस बात का पता नहीं था जब उसने कहा था " जम्हूरियत वो तर्ज़े हुकूमत है कि जिस में , बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते "। जाँनिसार अख़्तर कहते हैं " वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं , जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं "। अर्थात मनोनित लोग ही शासक हैं आजकल और हम समझते हैं हम चुनते हैं। 

    हम अभी खेल का इंतज़ार कर रहे हैं जबकि खेल तो कभी का शुरू हो चुका है। सत्ता के खिलाड़ी बहुत पहले अपनी तैयारी करने लगते हैं बिसात बिछने से पहले ही अपनी गोटियां अपने पासे फैंकने की शुरुआत होने लगती है। बंदर बिल्लियों को बराबर बांटने को पलड़े पर तोलता है बिल्लियां बंदर की जय जयकार करती रहती हैं। कोई केंकड़ा उस पलड़े से इस पलड़े की तरफ आने को बेताब है जिधर पलड़ा झुका हुआ है। नेता दल बदलते हैं देख कर पलड़ा किस का झुका लगता है जनता खामोश है मगर जनता की राय क्या होगी ये कोई और लोग हैं जो समझने का दावा करते हैं। फिर जनता को समझाते हैं उनकी बताई राय को मानना ही जनता की भलाई है। चुनाव घोषित होने से पहले नेता अपनी सुविधा से किसी दल के बड़े नेता की करीबी हासिल करने लगते हैं ये सोचकर कि उसी की मर्ज़ी से दल की टिकट की दावेदारी पक्की हो जाएगी। मगर पता नहीं चलता कब किधर से कोई और आकर निर्णय करने का अधिकार पा जाता है। चुनाव घोषित होते होते सब का गणित बदल जाता है और फिर से हिसाब समझना पड़ता है। 

     पर्दे के सामने कुछ भी नहीं नज़र आता पीछे हलचल होती रहती है। सौदेबाज़ी से लेकर चापलूसी तक सब आज़माने के बाद साक्षात्कार का ढकोसला होता है। सवाल आसान जवाब कठिन होते हैं उलझाने की कोशिश की जाती है। धनबल बाहुबल ही नहीं जातीय समीकरण से लेकर जीतने को कुछ भी करने नियम कानून संविधान की परवाह नहीं करने की बात अनुभव और झूठ को सच कहने की कला जैसे गुण परखे जाते हैं। चंदा अलग बात है और टिकट की बोली गोपनीय अपनी जगह ऐसे कितने काम साथ साथ साधने होते हैं। आपको आदत है अच्छा खराब नहीं देखते चोर डाकू जैसा भी हो अपने किसी दल को मत देना है किसी धर्म या जातीयता की बात ध्यान रखनी है अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी मारनी है फिर चिल्लाना है हाय मर गए हम लोग। जब सभी उम्मीदवार सामने खड़े हो गए तब हम उनकी वास्तविकता को भूलकर इस बात की चर्चा करते हैं कि जीतना तो उसी को है जिसका शोर है तो हम उसी को वोट डालते हैं मतलब ये कि हम कितने बड़े नासमझ हैं जो चुनाव से पहले निर्णय कर लेते हैं कि हमारे वोट की कोई कीमत नहीं है और हम वोट नहीं भी डालते या किसी को देते तब भी जिसे जीतना है वो जीत जाएगा। जब हम खुद जम्हूरियत की ताकत को नहीं समझते और आज़माते तो फिर देश की हालत का दोष किसी और को देने से कुछ भी कैसे हो सकता है। 

        कभी सोचा है ये दलीय व्यवस्था क्या है शायद हमने विचार ही नहीं किया कि जब अपना विधायक या सांसद हमने चुनना है जो हमारे लिए काम करे हमारी बात कहे सुने तब किस को चुनाव लड़वाना ये कोई और कैसे निर्णय कर सकता है। संविधान किसी दलीय व्यवस्था की बात नहीं करता है और चुनाव आयोग का राजनैतिक दलों को महत्व देना नागरिक के समानता के बुनियादी अधिकार में हस्ताक्षेप है। ये कुछ लोगों का संगठित होकर अधिकांश लोगों को निरीह बेबस बनाकर सत्ता उन्हीं के हाथों में रखने का उपाय है। यकीन करिये इस व्यवस्था से आम जनता का शासन कभी नहीं स्थापित किया जा सकेगा। चोर चोर मौसेरे भाई की तरह उनका गठबंधन मनमानी कर सकता है और करता रहता है। कब कौन किधर होता है आप जो चुनकर भेजते हैं नहीं समझ सकते न जानते हैं और रोक भी नहीं सकते। क्या हमने चुनते समय खुद को उनके पास गिरवी रख दिया था , उनका आचरण यही दर्शाता है। वास्तव में देश की जनता को सही मायने में आज़ादी नहीं मिली है बस विदेशी शासक चले गए और अपने देश के कुछ मुट्ठी भर लोग सेवक का चोला पहन कर शासन करने लग गए हैं। अन्यथा हमारे निर्वाचित विधायक सांसद शाही अंदाज़ से कैसे रहते जब देश के असली मालिक आम नागरिक बदहाली और गरीबी में घुट घुट कर जीने को विवश हैं। नहीं ऐसी आज़ादी की कल्पना किसी भी देश की आज़ादी की जंग लड़ने वाले शहीद ने नहीं की थी , उनके नाम लेकर सत्ता और स्वार्थ के भूखे लोगों ने अपने लिए सब छीनने का काम किया है। कभी कभी तो लगता है ये आज़ादी इक छल है धोखा है और आज भी हम गुलामी भरा जीवन जीने को विवश हैं। केवल पांच साल बाद चुनाव में सत्ता बदलने से हासिल कुछ भी नहीं होता है। बल्कि अब तो हालत और भी खराब है क्योंकि अपनी ही चुनी हुई सरकार की गलती या मनमानी करने पर हम विरोध तो क्या आलोचना भी करते हैं तो भयभीत हो कर क्योंकि सत्ताधारी दल और शासन करने वाले सच कहने को देशहित विरोधी घोषित करने में संकोच नहीं करते हैं।

   देश की जनता से निर्वाचित होने से मिले अधिकारों का जनता के खिलाफ ही इस्तेमाल किया जाता है और समझाया जाता है कि जनादेश मिलने से उनकी हर बात उचित है जबकि वास्तव में सही जनादेश का अर्थ अगर देश की जनता का बहुमत समझा जाये तो अधिकांश सत्ता पचास फीसदी से कम वोट पाने वालों को मिलती रही है और दलीय व्यवस्था में विभाजित बहुमत सत्ता से बाहर रहता है। ये पहले भी हुआ करता था लेकिन इक सोच हुआ करती थी कि विपक्ष की अपनी अहमियत है मगर इधर कुछ वर्षों से सत्ता पर आसीन लोग विपक्ष को खत्म करने की बात खुले आम कहते हैं जिस का मतलब ही तानाशाही व्यवस्था की ओर जाना है। हम खामोश रहकर ये सब कब तक देख सकते हैं। अभी इतना ही और आखिर में मेरी इक ग़ज़ल।

  खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई -लोक सेतिया "तनहा"

खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई
हर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई।

इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई।

बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई।

मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई।

( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )

अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई।

सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई।

लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा
ऐसे  किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई।   
 

 

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