जनवरी 14, 2017

POST : 586 भीतर मिट्टी बाहर चूना , दिल्ली शहर नमूना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      भीतर मिट्टी बाहर चूना , दिल्ली शहर नमूना ( व्यंग्य ) 

                                     डॉ लोक सेतिया

ये अंदर की बात है , बाहर दिन का उजाला है भीतर अंधेरी रात है। इंसानियत का सूखा पड़ा है ये कैसी बरसात है। सत्ता के खेल में मोहरे हैं सब लोग , राजनेताओं की शह है कभी मात है। कमल उनका हाथ उनका उनका हाथी उनकी साईकिल उनकी हँसिया हथौड़ा और तारा है जनता को मिली सभी से पीठ पर उनकी लात है। कहने की नहीं है बस समझने की बात है। बाहर किसी को नहीं बतानी ये अंदर की बात है। ये हमारा समाज है जो अपने हर गुनाह को किसी गलीचे के नीचे दबा कर छुपा कर रखता है। कभी कोई खिड़की खुलती है और कोई तेज़ हवा या आंधी आती है जो सारे परदे हटा देती है बिछे कालीन उतार फैंकती है और सब नंगा दिखने लगता है। कमाल ये है तब भी हम तथाकथित सरकार प्रशासन और आला अधिकारी अपनी करतूतों पर शर्मसार नहीं होते इस बात पर कि हमारे भीतर कितना गंद भरा है , बल्कि हम सोचते हैं ये क्यों हुआ और फिर सच सामने नहीं आये इसका उपाय करते हैं। ये कहना कि जिसके साथ अन्याय हो उसको बाहर किसी को नहीं बताना चाहिए हमारे पास आकर रोना चाहिए। जब कि न पहले उनको किसी का दर्द समझ आया न आगे कभी दिखाई देना ही है। सरकार की सभी योजनाओं की हक़ीक़त यही है , दिल्ली शहर नमूना अंदर मिट्टी बाहर चूना। और ये कहावत आज की नहीं पुरानी है। महलों में युगों से अत्याचार ऐसे ही होते आये हैं , विरोध को दीवारों में ज़िंदा चुनवा दिया जाता है। आज भी शासक चाहते हैं अंदर की घुटन कोई बाहर नहीं आने दे , घुट घुट के मरना अनुशासन है। तानाशाही का मतलब यही होता है , अन्याय करने वाला ही इंसाफ भी करता है। फिर लोकतंत्र क्या है , सच बोलने की आज़ादी नहीं है तो सत्यमेव जयते को हटा दो जहां कहीं लिखा है।

             सवाल सर्फ सेना और सुरक्षाबलों का नहीं है। घर में बहु पर अत्याचार करने वाले भी यही चाहते हैं बहु खामोश ही रहे , परिवार की लाज के नाम पर गुलाम बनी रहे। इतना ही नहीं सभी संगठन यही चाहते हैं , उनकी असलियत किसी को पता नहीं चले। राजनीति तो है ही इसी का नाम , बाहर दिखाने को लोकतंत्र है , भीतर किसी की मनमानी या किसी की तानाशाही। कोई भी दल अपने आम कार्यकर्ता क्या विधायक सांसद तक को अपनी राय बताने की आज़ादी नहीं देता , व्हिप का चाबुक उनको भेड़ बकरी की तरह जिधर आदेश उधर चलने को मज़बूर करता है। और हम कहते हैं हम आज़ाद हैं , तो आज़ादी है क्या।  जनता की आज़ादी वहीं तक है जहां तक सरकार को कोई चुनौती नहीं दिखाई दे।

                   आपको तमाम योजनाओं की जानकारी दी जाती है , मेक इन इंडिया , स्टार्ट अप इंडिया , रोज़ इक नया नाम। भीतर की बात अभी भी भीतर छुपी हुई है , गरीबी मिटानी तो है मगर कैसे , कुछ ऐसे कि गरीब मिट जायें मर जायें और उनका नामोनिशान तक नहीं रहे ताकि ये अभिशाप खत्म हो। न बचेगा कोई गरीब न बाकी रहेगी गरीबी। इस योजना पर काम जाने कब से चल रहा है , हालात बनाये जाते रहे हैं ताकि गरीब ज़िंदा ही नहीं रहे मर जायें सभी गरीब। ख़ुदकुशी का सामान खुद सरकार देती है सस्ते दाम पर , मौत सस्ती है ले लो , ज़िंदगी बहुत महंगी है उस पर अमीरों का नेताओं का अफसरों का धन्ना सेठों का हक है। सरकार की मज़बूरी है इस योजना को खुलेआम नहीं बता सकती। बस इतना ही करती है कि समस्या को हल ही नहीं करो , बनाये रखो उस सीमा तक जब लोग तंग आकर खुद ही मौत को चुन लें। किसी शायर का इक शेर है :--

                                   वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता ,
                                  तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवायें नहीं दीं।

सरकार ज़ालिम है पापी नहीं , आपका ईलाज नहीं करती मगर आपको ज़हर भी नहीं दे सकती।

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