कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जाने कब से बंद थेहम खुद अपनी ही कैद में
छटपटाते रहे अब तक
रिहाई के लिये हर दिन
किया ही नहीं हमने कभी
मुक्त होने का प्रयास भी
समझते रहे अपनी कैद को
अपने लिये इक सुरक्षा कवच ।
जानते थे ये भी हम कि
जीने के लिये निकलना ही होगा
इस अनचाही कैद से इक दिन
मगर देखते रहे इक सपना कि
आयेगा कभी कोई मसीहा
मुक्त करवाने हमको
खुद अपनी ही कैद से ।
तकदीर ने शायद हमको
दिखलाया है रास्ता
बंधनमुक्त होने का
और खुद हमने थामा है
इक दूजे का हाथ
और तब नहीं है बाकी कोई निशां
अपनी निराशा और तनहाई
की खुद ही बनाई उस कैद का ।
संग संग उड़ रहे हैं हम
और खुले गगन में
चले हैं छूने प्यार में
आकाश की नई ऊंचाई को
गा रहे हैं अब गीत ख़ुशी के ।
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