अप्रैल 08, 2019

बंधनमुक्त ( आत्मचिंतन ) डॉ लोक सेतिया

              बंधनमुक्त ( आत्मचिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

        कुछ कहना नहीं कुछ सुनना नहीं , कोई भी गवाही नहीं देना चाहता कुछ भी सफ़ाई किसी के आरोप पर नहीं देनी है। मंज़ूर है जिसको जैसा भी लगता हूं मैं। जन्म से लेकर बंधता गया रिश्तों के कितने बंधनों में मगर सब जानते हैं दुनिया का हर नाता छोड़ना होता है जिस दिन आपको अपने संग रहना जीना होता है। कौन समझता है किस की ज़िंदगी किस किस मोड़ से कैसे गुज़री है। हम सभी जानते हैं हमने कैसे जीवन का सफर तय किया है। किसी को भी सभी मिलता नहीं जो भी चाहते हैं और जो मिलता उसकी कीमत कोई भी नहीं समझता है। नहीं आज अब मुझे कोई गिला कोई शिकायत कोई नाराज़गी या कोई ख़ुशी संबंधों को लेकर नहीं है। अच्छा नहीं मगर शायद इतना भी बुरा नहीं कि मतलबी और अवसरवादी बन जाऊं। ऐसा बन कर बड़े चैन से सुखमय जीवन जी सकता हूं मगर इक ज़मीर है जो इजाज़त नहीं देता। कभी किसी रिश्ते का अनुचित लाभ उठाना नहीं चाहा है मगर मुमकिन है किसी को लगता हो मैंने किसी भी नाते को ठीक से निभाया नहीं है। वास्तव में इसी में उलझा हुआ खुद क्या हूं सोचने की फुर्सत इजाज़त दोनों नहीं थीं। अब मेरे पास कुछ भी नहीं है खाली दामन है और काटों से उलझा हुआ है कोई फूल कोई उपहार कुछ भी नहीं है मेरे आंचल में छुपाया हुआ। अब आंचल फैलाना भी नहीं है स्वाभिमान आत्मसम्मान को छोड़ कर। बस चाहता हूं सभी से बिना किसी आरोप किसी व्यर्थ की बहस क्या उचित क्या अनुचित किस का क्या फ़र्ज़ निभाना बाकी है की सारी बातों को छोड़ ख़ुशी ख़ुशी जीना केवल खुद बनकर। बगैर किसी संबंध का आवरण ओढ़े केवल इक आम इंसान बन कर बचा हुआ जीवन जीना। क्या ऐसा करना कोई गुनाह होगा क्या हर दिन खुद नहीं कुछ होकर जीना ही नियति है। 

                 किसी को छोड़ने की बात नहीं है कहीं भी जाने की भी बात नहीं है कोई साधु संत का चोला नहीं पहनना क्यंकि मैं नहीं हूं जो डाकू रहा और फिर योगी बन गया। मैं तो हमेशा यही था और कुछ बनना नहीं चाहा जबकि सभी चाहते थे मुझे केवल जो हूं नहीं रहना कुछ और बनना चाहिए जो मैं था नहीं। जैसे कोई किसी नाटक का किरदार निभाता है। नाटकीयता जीवन का अंग होती होगी मगर मुझसे अपना किरदार उस तरह से नहीं निभाया गया जैसे दुनिया चाहती थी। इस के सिवा किसी से कोई मतभेद नहीं था और न कोई हो सकता है , सब को अपनी ख़ुशी से जीना और सबको जीने देना इस साधारण सी बात में परेशानी क्या है। कोई भी खराब नहीं लगता मुझे सभी अच्छे लगते हैं और खुद अपनी कमियां बुराईयां जानता हूं। नहीं बन सकता कोई देवता कोई मसीहा कोई इंसान जिस में कोई खामी नहीं हो। जैसा भी अच्छा बुरा मैं हूं बदलना संभव नहीं जीवन की ढलती बेला के आखिरी पड़ाव पर। भागना नहीं है जीवन की कठिनाइयों से डरकर घबराकर मगर उनको स्वीकार कर उनके साथ तालमेल बनाकर रहना है। साहस की कमी होगी जो ज़िंदगी की बातों से जंग लड़ना नहीं आता है पर कायरता नहीं है उनसे बचने को भाग नहीं सकता हूं। दुनिया मेरी नहीं है जाने किसकी दुनिया है मगर मुझे इसी पराई दुनिया में सभी के बीच खुद अपने साथ रहना है। ये चाहना भी अगर अपराध है तो अपराधी होकर सज़ा भी मंज़ूर होगी जो भी मिलेगी सुनाई जाएगी। अलविदा कहने का समय नहीं आया अभी जब आया तब औपचारिकता निभाऊंगा क्षमा मांगने धन्यवाद करने की। अभी रुक कर थोड़ा समझना है निर्णय करना है आराम भी करना है थकान मिटानी है तब बाकी सफर को आगे बढ़ना है। 

 

कोई टिप्पणी नहीं: