फ़रवरी 08, 2025

POST : 1944 आम आदमी पार्टी की पराजय का अर्थ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 आम आदमी पार्टी की पराजय का अर्थ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

दस साल पहले 12 फरवरी 2015 को उनकी जीत का राज़ समझने को पोस्ट लिखी थी , दस साल बाद उन्हीं की पराजय का अर्थ समझने की आवश्यकता है । आम कहलाना आसान था आम बनकर रहना बेहद कठिन था बस आप कभी अपने नाम पर खरे नहीं उतर पाए खुद को ख़ास नहीं बल्कि खास से भी थोड़ा ऊपर समझने लगे थे । सभी मापदंड सभी कायदे कानून दुनिया भर के लिए खुद पर कोई बंधन नहीं मान कर मनमानी करने की छूट की आदत ने आपकी राजनीति को बदलने की सोच की बात को कभी गहराई तक जाने नहीं दिया तभी आपका पौधा फ़लदार नहीं हुआ , ज़रा से हवा चलते ही ज़मीन पर गिर गया इरादों की परिपक्वता की कमी से । पहाड़ की ऊंचाई आपने बिना किसी परिश्रम हासिल कर ली जैसे कोई जादुई अलादीन का चिराग़ मिल जाये और हुक्म मेरे आका कहते ही असंभव कार्य संभव कर दे । लेकिन ये खेल तमाशा वास्तविक नहीं होता है इक धोखा होता है क्योंकि आपको कोई जादुई चिराग मिला नहीं था जिस से आप कुछ भी कहते होता जाता इसलिए कभी न कभी जनता को समझ आना ही था । कभी आप बंदर की तरह बिल्लियों में रोटी बांटने वाले बन कर सारी रोटी खुद खाते गए लेकिन समय बदलते ही कोई और उसी तरह बंदर बन कर आपका हिसाब बराबर कर गया है । कहते हैं कर्मों का परिणाम सामने आता है बस लोग समझते नहीं हैं कि बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय । आम तो मौसम बदलते साल बाद वापस पेड़ पर लगने लगते हैं लेकिन राजनीति में जब कोई ख़ास हो जाता है फिर से साधारण बनना असंभव होता है ।
 
आप कैसे थे कैसे इतने बदले की लोग आपको पहचानते ही नहीं भला इतने रंग कोई बदलता है गिरगिट भी हैरान है आपकी ज़ुबान है या कोई बेसुरी तान है । जिधर देखो किसी की झूठी शान का यही हाल है जिस का हर चाहने वाला हुआ लहूलुहान है । जान है तो जहान है खोया आपका ऊंचा आसमान है धरती पर कोई आपका नाम है निशान है कोई खुदा आप पर क्या मेहरबान है इक बस्ती जिस में रहता आम इंसान है कोई झौपड़ी है कच्चा मकान है । अपने देश में आम जनता का यही बसेरा है आपको लगता अंधेरा भी कोई हुआ सवेरा है चार दिन का डेरा है क्या तेरा मेरा है , लूटने का कारोबार आजकल की राजनीति है कौन चोर कौन डाकू सबकी आती बारी है । दल कोई जीतता कोई हारता है जनता हमेशा ही हारी है हार कर भी जनता मानती हार नहीं लोकतंत्र से उसकी सच्ची प्रीती है । चुनाव की घड़ी में जनता की परीक्षा होती है , सामने कुंवां पीछे खाई दिखाई देती है कौन समझेगा हमने क्या क्या आज़माया है जिस पर यकीन किया उसी से धोखा खाया है ।  दूल्हा कौन नहीं जानती दुल्हन बेचारी , बिछुड़े संगी सहेलियां सारी बजने लगी है कोई शहनाई पहले होगी विदाई , गृहप्रवेश की रस्म निभाई , लेकिन ये बंधन है अस्थाई कैसे कहे बता मेरी माई सत्ता किसी की सगी नहीं होती है शासक होते हैं हरजाई । कविता जाने किसने समझी किसने समझाई पढ़ना आप भी लिखी लिखाई ।
 
 

चुनावी आंकड़ों का बाज़ार ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कितना अनुपम है , हर दल का इश्तिहार , 
जनता का वही ख़्वाब सुहाना , सच होगा 
देश की राजनीति का बना पचरंगा अचार
नैया खिवैया पतवार चलो भवसागर पार । 
 
देख सखी समझ आंख मिचौली की पहेली 
सत्ता होती है , सुंदर नार बड़ी ही अलबेली 
सभी बराबर अब राजा भोज क्या गंगू तेली 
मांगा गन्ना देते हैं गुड़ की पूरी की पूरी भेली ।
 
अपना धंधा करते हैं जम कर के भ्र्ष्टाचार
हम जैसा नहीं दूसरा कोई सच्चा ईमानदार 
दोस्त हैं दुश्मन , सभी हम उनके दिलदार 
दुनिया सुनती महिमा , अपनी है अपरंपार ।
 
छोड़ दो तुम सभी अपनी तरह से घरबार
इस ज़माने में ढूंढना मत कभी सच्चा प्यार 
अपने मन की करना , सोचना न कुछ तुम 
बड़ा मज़ा आता है कर सबका ही बंटाधार । 
 
हमने मैली कर दी गंगा यमुना सारी नदियां 
पापियों के पाप धुले कहां नहलाया सौ बार 
डाल डाल पर बैठे उल्लू , पात पात मेरे यार 
खाया हमने सब कुछ नहीं लिया पर डकार । 
 
अपने हाथ बिका हुआ है आंकड़ों का बाज़ार 
अपना खेल अलग है , जीतने वाले जाते हार 
काठ की हांडी हमने देखी चढ़ती बार-म-बार 
कौन समझा कभी जुमलों की अपनी बौछार ।     
 
अपना रोग लाईलाज है कौन करेगा क्या उपचार 
जितनी भी खिलाओ दवाई कर लो दुआएं भी पर 
कुछ असर नहीं होता हम को रहना पसंद बिमार 
बदनसीब जनता का ख़त्म नहीं होता इन्तिज़ार । 
 
 विदाई के बाद के रीति रिवाज जब बहू नए घर आती है: Griha Pravesh Tips -  Grehlakshmi

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

सटीक लेख...आज की पराजय पर...जनताको ज्यादा दिन धोकेमे नही रखा जा सकता