फ़रवरी 09, 2025

POST : 1945 दिल्ली की गलियां चौबारे ( दिल से दिल तलक ) डॉ लोक सेतिया

  दिल्ली की गलियां चौबारे ( दिल से दिल तलक ) डॉ लोक सेतिया 

दिल्ली छोड़ कर कौन जाता है ग़ालिब सच कहते हैं लेकिन मैंने खुद कितनी बड़ी नादानी की 1980 में बिना सोच विचार दिल्ली को अलविदा कह वापस अपने शहर गांव चला आया ।  कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की पर आज सोचा ये बताना ज़रूरी है , दिल्ली में रहने वाले का ठप्पा चिपक जाए तो आदमी घर का रहता है न घाट का । शहर से बाहर पहले पांच साल पढ़ाई की खातिर रोहतक रहना पड़ा फिर दिल्ली जाकर ठिकाना बनाया सात साल तक खूब बड़े ही सलीके से ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाया । नासमझी कहें चाहे नसीब की बात दिल्ली को छोड़ना ही नहीं बाद में कोशिश कर भी दिल्ली नहीं जा पाना हमेशा इक कसक दिल में रही है । आजकल क्या मिलता है मुझे नहीं मालूम लेकिन तब मुझे जो चाहिए था जीवन में प्यार वो सिर्फ दिल्ली से मिला कभी कहीं से नहीं मिला उम्र भर तलाश करता रहा । इसलिए मुझे दिल्ली कोई महानगर नहीं मुझे अपनी महबूबा लगती है बड़ी ही दिलकश और हसीन गलियां बाज़ार चौबारे और कितने प्यारे प्यारे दोस्त कई रिश्ते नाते इतना सब उस शहर के सिवा कहीं नहीं मिला आज तक । दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी नहीं है देखा जाये तो दिल्ली में पूरा हिंदुस्तान समाया हुआ है दिल्ली ने सभी को अपनाया हुआ है । कभी शासक बाहर से आते थे दिल्ली को लूटते थे लौट जाते थे लेकिन धीरे धीरे दुनिया भर से मतलबी लोग इस नगरी में आकर दिल्ली से सब कुछ हासिल करने के बाद भी दिल्ली की बुराई करते हुए संकोच नहीं करते लेकिन रहते यहीं हैं । दिल्ली के साथ ये छल ऐसा व्यवहार करने वाले कभी दिल्ली के नहीं बन सकते हैं । वास्तव में अधिकांश लोग दिल्ली को समझ ही नहीं पाते हैं जैसे लख़नऊ कोलकाता मुंबई चंडीगढ़ जैसे शहरों को निवासी समझते ही नहीं बल्कि उनका वास्तविक स्वरूप कायम रखते हैं । ये कसूर किस का कहना कठिन है लेकिन आज जैसी दिल्ली बन गई है वैसी दिल्ली की कल्पना कभी किसी ने नहीं की थी । 
 
जितने साल मैं रहा दिल्ली में मैंने जितना दिल्ली को देखा समझा कभी किसी और जगह को शायद ही जाना है इसलिए 73 साल की ज़िंदगी में दिल्ली में बिताये सात साल मुझे सबसे महत्वपूर्ण खूबसूरत और शानदार लगते हैं । मेरी ज़िंदगी की कहानी बिना दिल्ली के लिखी ही नहीं जा सकती है , उस दिल्ली का हर कोना मैंने देखा है किसी गंदी बस्ती से लेकर लुटियन ज़ोन में राष्ट्र्पति भवन और मुगल गार्डन तक । कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि किसी ने मुझसे कहा कि आपके पीछे पीछे हम दिल्ली चले आये और खुद आप ही छोड़ गए दिल्ली को । मैं लगता है जैसे कोई बंजारा कभी कहीं कभी कहीं जाता रहता है लेकिन बंजारा किसी शहर से दिल नहीं लगाता है जैसा मैंने दिल लगाया और दिल हमेशा उसी शहर में रहा । दिल अभी भी वहीं जाने को व्याकुल रहता है कैसे समझाऊं दिल को कि अब वहां कौन है जो मुझे अपनाएगा । कहते हैं जिसकी हसरत हो नहीं मिलने पर कशिश रहती है मिल जाए तो बात वैसी नहीं रहती लेकिन मुझे तो दिल्ली ने खुद बुलाया था हासिल था सभी फिर भी दिल्ली से बिछुड़ना पड़ा कौन इस को समझेगा बताएगा ये मुहब्बत क्या है । यूं मैंने कभी भी कोई ऐशो आराम कोई शान ओ शौकत कभी नहीं चाही न ही पाई भी लेकिन इक ऐसी ज़िंदगी जिस में कोई बंधन कोई शर्त नहीं हो मनमौजी की तरह खुश रहना मुझे बस सिर्फ वही पसंद थी जो दिल्ली में ही मिली मुझको । 
 
करोलबाग़ से चांदनी चौक तक की रौनक की यादें हैं तो हर दिन अलग अलग जगह लगने वाली मार्किट जिस में सभी कुछ मिल जाता है भी याद है । कभी कभी लगने वाले मेले में दोस्तों संग जाना कभी मंडी हाउस जाना नाटक देखने कितने ही यादगार पल हैं , लेकिन सबसे बढ़कर रामलीला मैदान में जाकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का भाषण सुनना 25 जून 1975 को जिस ने जीवन को इक नई दिशा दिखाई मेरी ज़िंदगी को इक मकसद से जोड़ने का कार्य किया । सच तो ये है कि मैं जैसा हूं मुझे बनाने में दिल्ली में गुज़ारे कुछ साल उसकी नींव हैं , मेरी जड़ें उसी धरती से जुड़ीं हुई हैं आज भी । प्यार क्या होता है और किस से कैसे होता है नहीं मालूम लेकिन मुझे दिल्ली से बेइंतहा प्यार है ।  दुनिया में दिल्ली जैसी कोई और जगह शायद ही कहीं हो मुझे तो लगता है कोई और शहर दिल्ली नहीं बन सकता , मेरी प्यारी दिल्ली को सलाम । 
 

 
 
 


 
  

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