कॉमेडी बन गई है राजनीति ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
सियासत क्या है समझो कयामत है , वही चमकता है जिस की किस्मत है , रामगढ़ वाले नहीं जानते कौन ठाकुर है कौन बसंती है । कौन कहता है कि चाहत पर सभी का हक है उनकी मर्ज़ी है कुर्सी पर कौन बैठेगा मुख्यमंत्री वही जो उनके मन भाये । शतरंज उनकी है लेकिन कौन बादशाह कौन रानी कितने प्यादे सब उनके हाथ की कठपुतलियां हैं । नौटंकी का लुत्फ़ उठाओ खामोश रहो सिर्फ पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ जब ज़रूरत हो ताली बजाओ नाटक को मत समझो दिल को बहलाओ रोटी नहीं मिलती है तो केक खरीद कर पेट की भूख मिटाओ । चार्वाक ऋषि कहते हैं क़र्ज़ लेकर घी पियो जैसे भी चाहे मौज मनाओ जियो मत किसी को चैन से जीने दो आखिरी जाम है मुझे पीने दो । कॉमेडी शो जब चलता है तब लोग उस बात पर भी कहकहे लगाते हैं जिसे समझने वाले की आंखों में अश्क़ भर आते हैं । ये हम्माम है सभी नहाने वाले नंगे होते हैं लेकिन बादशाह सलामत छाता लेकर बारिश में नहाते हैं गीत पुराना गुनगुनाते हैं बिना भीगे घर से दफ़्तर पहुंच जाते हैं । कपिल शर्मा कभी नहीं समझे लोग किस बात पर हंसते हैं उनको बस यही आता है जिस को जैसा चाहे बनाते हैं कलाकार अपना किरदार निभाते हैं कपिल सभी का मज़ाक उड़ाते हैं कहते हैं कभी न कभी हर किसी के दिन आते हैं । सोनी से बिछड़ कर नेट्फ़्लिक्स से रिश्ता बनाया था अब पछताते हैं , आजकल लोग कोई धुन बनाते हैं रैप सांग गाते हैं सुर ताल इस तरह मिलते हैं शब्दों के तुकांत मिलते मिलते बिना किसी मकसद अपनी मस्ती में झूमते गाते हनीसिंह कहलाते हैं । चार दिन की चांदनी में ज़िंदगी जीते हैं अचानक खो जाते हैं । आज आपको इक राजा की कहानी सुनाते हैं सिकंदर का मुक्कदर बदलता है तब अच्छे दिन आते हैं ।
असली बेशकीमती लाल चोरी नहीं हुए लेकिन खो गए हैं लगता है उन्होंने खुद अपनी कीमत नहीं समझी है और आधुनिक युग का जोहरी जिस भी कांच के टुकड़े को किसी पत्थर को हीरा घोषित करता है उसी को बादशाह अपने ताज पर जगह दे कर अनमोल बना देते हैं । मेरी इक ग़ज़ल का शेर है , अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में , देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई । ये इसलिए बताना पड़ा है क्योंकि अनमोल उस को कहते हैं जिस की कोई कीमत नहीं लगा सकता हो , जब आप खुद बिकने चले आये इस दुनिया के चोरबाज़ार में तब अपनी कीमत खुद आपने गंवा दी है । रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरो मोल । संसद विधायक दौलत के तराज़ू में टके सेर भाव से बिकने लगे हैं , जनता ने चुना था उसके अधिकार की बात करेंगे मगर उन्होंने खुद अपना अधिकार गिरवी रख छोड़ा सदन का नेता चुनने का । जो बिक गया वो ख़रीदार नहीं हो सकता , बाज़ार का दस्तूर है कैसे समझाऊं । कॉमेडी के नाम पर आपत्तिजनक बातें करने पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है जैसे ठीक उसी तरह जनहित की राजनीति को छोड़ बंदरबांट से लेकर मनोनयन की नीति की प्रणाली पर भी अदालत को ध्यान देना चाहिए अन्यथा चुनाव आयोग की कोई अहमियत नहीं बचेगी और न ही संसदीय विधायी प्रणाली का कोई महत्व रहेगा । सत्ता की राजनीति का कूड़ा कर्कट भी गंगा जमुना की तरह साफ़ करना अनिवार्य है संविधान का महत्व तभी समझ आएगा । कॉमेडी से समाज देश का भला नहीं हो सकता , भूखे भजन न होय गोपाला ।
अब मेरी लिखी ग़ज़ल पूरी पेश है ।
खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गईहर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई ।
इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई ।
बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई ।
मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई ।
( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )
अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई ।
सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई ।
लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा
ऐसे किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई ।
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