असली भगवान बंदी हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
आज जो कहना चाहता हूं उसे कविता कहानी ग़ज़ल अथवा निबंध साहित्य की सभी विधाओं से हटकर शायद किसी जीवनी की तरह वर्णन किया जा सकता है । लेकिन ये मेरी अथवा किसी एक व्यक्ति की ज़िंदगी की बात नहीं बल्कि शायद अधिकांश लोगों की दास्तान कहा जा सकता है । सिर्फ औपचरिकता निभाने को इक नाम रखते हैं अजबनी , कोई पुरुष या महिला दोनों संभव है । अजनबी की ज़िंदगी बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हर दिन किसी अनचाहे हादिसे से गुज़रती रही है । कभी भी समाज में उसको कुछ भी जैसे मिलना ही चाहिए था मिला नहीं , लेकिन दुनिया ने समझाया कि ऐसा किस्मत में निर्धारित था । अनेक बार अजनबी को अनावश्यक दुःख दर्द और परेशानियां होती रहीं और उन सभी का कारण था कुछ लोगों का अन्य तमाम लोगों से अधिकार छीन कर अपना आधिपत्य जमा लेना । लेकिन अजनबी ने हमेशा उसको भगवान की मर्ज़ी ही मान लिया दोषी अनुचित आचरण करते रहे अपना अधिकार मानकर तमाम लोगों से अन्याय करने को कोई भी नाम कोई कारण कोई बहाना घोषित करते रहे । अजनबी को शराफ़त से रहने का जो सबक पढ़ाया गया था उस में ज़ालिम से ज़ुल्म सहना कायरता नहीं बल्कि समझदारी माना जाता है । सहनशीलता की कोई सीमा होती है पर अत्याचार करने वालों के अन्याय और दमन की कभी कोई सीमा शायद नहीं थी जब भी लगता अब बस बहुत हो चुका उनकी ज़ुल्म करने की सीमा बढ़ती ही जाती रही कोई इन्तिहा नहीं थी उनकी उस से बढ़कर अजीब था उसे कोई मकसद बता कर अनिवार्य घोषित करते रहना ।
अजनबी पर घर परिवार के सभी सदस्यों ने अन्याय किया अपमानित करते रहे और उस पर बिना किसी आधार लांछन आरोप लगाकर प्रताड़ित करते रहे । स्कूल में अध्यापकों से सहपाठियों तक ने अजनबी की शराफ़त को कमज़ोरी समझ दंडित करने का कार्य किया उसका आत्मविश्वास ख़त्म करते रहे । दोस्तों से लेकर जीवन में हर दिन जिन जिन से वास्ता पड़ता सभी ने ऐसा ही किया जैसे कहते हैं कि पानी नीचे की तरफ बहता है । अजनबी हमेशा नीचे धरती पर खड़ा रहा जबकि अन्य तमाम लोग किसी ऊंचे आसमान पर खड़े समझते थे कि उनका कद बड़ा है जो वास्तव में नहीं था । जीवन में अनगिनत बार अजनबी को लगता उसे ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए लेकिन फिर सोचता अभी रहने देता हूं दोबारा होगा तो सहन नहीं करूंगा । मगर हर बार इक सोच रोक लेती कि मुझे बुराई का बदला बुराई से नहीं भलाई से देना चाहिए । गलत लोगों को कोई विधाता कर्मों की सज़ा कभी न कभी अवश्य देगा ही । ऐसा भी होता कभी अजनबी सोचता जब गलत आचरण करने वाले मौज में रहते हैं तो उसे भी उन की तरह बनकर जिन पर संभव हो अन्याय या षड्यंत्र कर अपने स्वार्थ साधने चाहिएं पर जब भी ऐसा करने का अवसर होता अजनबी की अंतरात्मा उसे रोकती गलत नहीं करने देती । कभी महसूस होता कि अगर गलत राह पर चलकर सफलता हासिल की भी तो कोई विधाता इस गुनाह की सज़ा देगा जो शायद पहले से खराब ज़िंदगी से भी बुरी हो जाएगी । कहने का अर्थ है कि भगवान पर भरोसा किया कभी उस से डर कर अपनी इंसानियत को बनाये रखा लेकिन दिल को चैन था सुकून था कि कदम डगमगाये नहीं कभी हमेशा सही रास्ते पर ईमानदारी से नैतिक मूल्यों मर्यादाओं का पालन करते रहे ।
कोई अदालत नहीं थी जो अजनबी से उम्र भर होने वाले हमलों के दोषी लोगों सरकार धर्म समाज को कभी कटघरे में खड़ा कर निर्णय करती उनको अपराधी साबित कर सज़ा देती । हमारे देश के करोड़ों लोग ठीक इसी तरह से अपनी शराफ़त का बोझ ढोते हमेशा मौत से बदतर ज़िंदगी बिताते हैं , बाकी दुनिया में भी ऐसा होता होगा लेकिन इस तरह उस को उचित नहीं ठहराया जाता सामाजिक धार्मिक अथवा सरकारी नियम कानून व्यवस्था की आड़ लेकर । जिसको पुरातन परंपरा इत्यादि कहते हैं वास्तव में कुछ चालाक लोगों का रचा इक षड्यंत्र है धोखा देने को किसी विश्वासघाती की योजना को ढकने छुपाने को । ताकतवर सत्ताधरी धनवान लोगों के लिए ये सभी कोई परेशानी नहीं खड़ी करते बल्कि उनके लिए सभी कुछ बदल जाता है सुविधानुसार । कभी कभी तार्किक कसौटी पर परखने पर लगता है कि कोई भगवान ईश्वर ख़ुदा उन सभी के गुनाहों की कोई सज़ा नहीं देता बल्कि उनको फलने फूलने देता है जैसे भगवान नहीं दुनिया को कोई शैतान चलाता है और ऊपरवाले का नाम सभी अपकर्मों को उचित समझाने को लिया जाता है । कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक ईश्वर भगवान ख़ुदा को किसी ने अपहरण कर अपनी कैद में बंदी बनाया हुआ हो और असली भगवान से मनचाहे ढंग से दुनिया का प्रबंधन करवा रहा हो ।