उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया
कभी कभी नहीं अक़्सर होता है आधी रात को नींद खुलती है और मन में कुछ घटनाओं को लेकर विमर्श होने लगता है बेचैनी में नींद आये भी कैसे हम सोना नहीं चाहते जागकर समझना अच्छा लगता है । अधिकांश मैं लिखने बैठ जाता हूं और विचार खुद ब खुद आते रहते हैं लेकिन आज , कल रात से लिख नहीं पाया क्योंकि मन में इतनी निराशा भरी थी कि सिर्फ़ अंधकार दिखाई देता लगता था । मगर चाहे कितना भी घना हो कोई अंधेरा कोई न कोई किरण उजाले की कहीं से चीरती अंधकार को मिटाती अवश्य है । जीवन में और समाज में हालात जितने भी खराब हों हमको उन से बाहर निकलना ही चाहिए घबरा कर हार नहीं मानते हैं । हर व्यक्ति कभी न कभी लगातार जूझते जूझते थकने लगता है ऐसे में उसे साहस को फिर से जगाना होता है बिखरे सपनों को टूटी आशाओं को जगाना पड़ता है । ज़िंदगी का यही संघर्ष ऊर्जा देता है उस सब बुराई बदसूरती को अच्छाई और ख़ूबसूरती में बदलने को , हर मोड़ से फिर से नया सफ़र शुरू करना होता है इस जीवन में कितने मोड़ आने अभी बाक़ी हैं कोई नहीं जानता है ।
विषय की विविधता की कोई सीमा नहीं है ये चर्चा देश समाज धर्म राजनीति से दोस्ती रिश्तों तक ही नहीं शायद इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया तक विस्तार लिए हुए है । वास्तविक जीवन में आस पास हर तरफ बातचीत आदर्शवादी विचारों और महान चरित्र की होती है लेकिन जब घड़ी आती है तो ये सब खोखले और झूठे साबित होते हैं । सोशल मीडिया पर भली भली बातें करने वाले वास्तव में भलाई करते कम और बुराई करने पर गर्व करते अधिक दिखाई देते हैं । भरोसा नहीं कि कब कौन पीठ में ख़ंजर घोपने का कार्य कर अपने स्वार्थ की ख़ातिर संबंधों को घायल कर दे । संसद विधानसभाओं में बैठ कर अथवा किसी संगठन संस्था के उच्च पद पर नियुक्त होने के बाद भी लोग संकीर्ण मानसिकता से उबर नहीं पाते हैं । जिनको न्याय और सत्य की रक्षा करनी है जब वही पक्षपात करने और दोषी को बचाने लगते हैं तब लोकतंत्र संविधान सभी का मकसद खो जाता है ।
अचरज की बात है जिनके पास आवश्यकता से अधिक है उनकी लालसा और हासिल करने की खातिर सही गलत को अनदेखा कर मनमानी करने की दिखाई देती है । राजनेता अधिकारी कर्मचारी व्यौपारी से बड़े प्रोफेशन में कार्यरत शिक्षक चिकित्सक उद्योगपति मानवता का धर्म भूलकर जो कभी नहीं करना चाहिए करने लगते हैं । कभी ऐसे लोग संख्या में कम होते थे उचित कर्तव्य निभाने वाले अधिकांश लेकिन अब दशा उल्टी हो गई है सही आचरण करने वाले विरले लोग नज़र आते हैं और विडंबना की बात है कि उनको समाज नासमझ और नादान कहता है । अधिक धनवान होना सफ़लता का तराज़ू बन गया है जबकि सामाजिक कर्तव्य निभाना और ईमानदारी को महत्व देना चाहिए था , सही मार्ग पर चलना जब मूर्खता कहलाए तो सामाजिक मूल्यों का कितना पतन हो चुका है समझना तो होगा । बड़ी ऊंची इमारतें बनाते हैं मगर जो अपने मूल्य और आदर्श थे उनको कितना नीचे ले आये हैं , खुली खुली सड़कें हैं लेकिन सोच कितनी तंग है कभी समझा ही नहीं ।
एहसास ( कविता ) 1973 की पुरानी डायरी से फिर से याद आई है ।
यह कैसी उदासी है यह कैसी है तन्हाई
गुलशन है वीराना फूलों की है रुसवाई ।
ख़्वाब सभी महलों के पड़े रेत के ढेरों में
रह गए हैं दबकर सब सितारे इन अंधेरों में ।
मेरा हर सवाल है ख़ुद अपना जवाब भी है
था वो संगीत मेरा ही टूटा हुआ साज़ भी है ।
अपने ही महलों में अब सांस ये घुटती है
मौत भी कैसी है ज़िंदगी पर जा रूकती है ।
ज़िंदगी ले लो मुझसे इन मौत की सांसों की
दे दो मुझे सपनों भरी नींद उन एहसासों की ।
1 टिप्पणी:
👍👌 हां रात में विचारों का आवेग तेज़ होता है.... रिश्ते कब छल जाएं किसी को नही पता👌👍
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