जुलाई 24, 2024

खेल है नसीबों का ज़िंदगी ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया

      खेल है नसीबों का ज़िंदगी  ( अफ़साना  ) डॉ लोक सेतिया  

नाम में क्या रखा है की बात पुरानी है नाम क्या है से नामकरण तक कितना कुछ बदल गया है । आस्था विश्वास अंधविश्वास से चलते चलते सरकार बदलने की बात होती रहती थी मगर सरकार नाम बताने की आड़ में नाम बदनाम करने बदलने की कोशिश करती है तो देश की बड़ी अदालत को दखल देना पड़ता है । लेकिन यहां माजरा कुछ और ही है किसी को जिस भी हसीना से इश्क़ होता वही बेवफ़ा निकलती किसी और की बन जाती । आशिक़ ने कितनी बार क्या क्या नहीं किया नतीजा वही पंछी पिंजरा छोड़ कब उड़ गया खबर नहीं हुई तो पंडित नजूमी सभी के दर की ख़ाक़ छान डाली आखिर में इक विशेषज्ञ से मुलाकात हुई तो उसने घर गली शहर नाम सभी का मिलान किया तब बताया आपको प्यार मिलेगा तब जब आप किसी महानगर में जा कर किसी शॉपिंग मॉल में खरीदारी करोगे दस दिन लगातार वही एक ही चीज़ खरीदनी है और जितने भी दाम मांग रहे हों चुपचाप देते रहना है छूट की बात कभी नहीं करनी अगर खुद कोई छूट देने को कहे तब भी मना कर देना है । चाहत बड़ी अजीब होती है आशिक़ी सब करवाती है ख़ाली जेब हाथ जोड़ उधर मांग कर जाने किस किस की खातिर सब खरीद कर जिस किसी को ज़रूरत थी दे दिया , कोई भी खुश नहीं हुआ हर किसी को महसूस हुआ जितना मांगा था नहीं बहुत थोड़ा मिला । नसीब इंसान का उम्र भर साथ साथ चलता है कौन है जो हालात बदलता है जिस से भी दिल लगाया रास्ता बदलता है । दोस्ती वफ़ा प्यार सब छोड़ ही जाते हैं दुश्मन हैं अपनी जां के वही आकर समझाते हैं मतलब की ख़ातिर सभी करीब आते हैं मतलब जब निकल जाता है जाने कहां खो जाते हैं । बर्बाद हो गया कोई घर बार बेच कर फिरता है ढूंढता ख़ुदा इक संसार बेच कर अपना ज़मीर बचा लिया हमेशा लोग शोहरत की बुलंदी पर खड़े हैं किरदार बेच कर । 
 
खुद को जिस शख़्स को बदलना नहीं आता है इस ज़माने के साथ चलना नहीं आता है संभलना आता है फिसलना नहीं आता है । रिश्तों में हर किसी को छलना नहीं आता है अनाड़ी है भरी दुनिया में अकेला है ज़िंदगी खेल नहीं इक झमेला है कोई क्या बताए क्या क्या सितम कैसे झेला है । उम्र भर यही लगता है थोड़ी दूर खड़ी हुई है ज़िंदगी करीब आ रही है पर ओझल हो जाती है पलक झपकते कोई खेल समझा रही है । किसी दिन इक सवाल आता है ज़हन में जीने से मरना अच्छा मलाल आता है दिल में ज़िंदगी का कुछ भी हासिल नहीं है इक नदी के इस पर कोई खड़ा है उस पर खड़ी है शायद वही ज़िंदगी है जाने का कोई पुल नहीं है । तैरना सीखा नहीं डूबना मुश्किल नहीं है ख़ुदकुशी नहीं करनी है बुज़दिल नहीं है हर कश्ती का होता कभी साहिल नहीं है ये दर्द का अफ़साना है अपना है दुनिया में न कोई भी बेगाना है पतवार नहीं मांझी नहीं लहरों को देखता है । अजब छोर है ज़िंदगी ठहरी हुई है लौट कर वापस जाने को भी नहीं कोई ठिकाना है । 
 
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