हमको मिली सज़ाएं हर बार तेरे दर पे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
हमको मिली सज़ाएं , हर बार तेरे दर पे
आये हैं आज फिर हम सरकार तेरे दर पे ।
कोई नहीं यहां जो फ़रियाद अपनी सुनता
शायद मिले किसी दिन वो प्यार तेरे दर पे ।
हमदर्द कौन किसका , बेदर्द दुनिया सारी
आते हैं लोग होकर लाचार तेरे दर पे ।
भगवान बन के बैठे इंसान हमने देखे
देखी बनी इबादत बाज़ार तेरे दर पे ।
सब झूठ के पुजारी मुजरिम हों जैसे सच के
लेकिन छुपा रखे हैं क़िरदार तेरे दर पे ।
दस्तूर है निराला बस शोर करते रहना
होती नहीं मधुर अब झंकार तेरे दर पे ।
जब देखता सभी कुछ ख़ामोश कैसे रहता
होने लगी है इस पर तकरार तेरे दर पे ।
हमको तबाह करके ख़ुद चैन से है सोता
हमने बना लिया है घर-बार तेरे दर पे ।
अहसान कर रहे हैं वरदान देने वाले
सब लूट का लगा कर संसार तेरे दर पे ।
दी ज़िंदगी भी ऐसी जो मौत से हो बदतर
झोली रही है ख़ाली हर बार तेरे दर पे ।
' तनहा ' कभी जनाज़ा अपना उठेगा आख़िर
उल्फ़त बुला ही लेगी इक बार तेरे दर पे ।
6 टिप्पणियां:
जी, अति हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति के लिए आभार
धन्यवाद मित्र आपकी प्रतिक्रिया एवं स्नेह अमूल्य धरोहर है ।।
Bahut khoob bdhiya sher hue hn 👌👍
Ji or behtr ho gai h 👍👍
Ji or behtr ho gai h 👍👍
बहुत बढ़िया ग़ज़ल। हार्दिक बधाई।
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