अगस्त 24, 2023

रिश्ता क्या चांद से धरती का ( अनचाहा संबंध ) डॉ लोक सेतिया

     रिश्ता क्या चांद से धरती का  ( अनचाहा संबंध  ) डॉ लोक सेतिया 

चांद से आशिक़ की मुलाक़ात हुई , दिन था फिर भी ये करामात हुई । गले मिलने की हसरत अभी बाक़ी आंखों आंखों में प्यार की बात हुई , भीगा दामन सब कुछ भिगोया बिना बादल इक बरसात हुई । क्या तुम उसी धरती से आये हो जो कभी मेरे और सूरज के बीच आती रहती है  छुप जाती है अंधेरा बढ़ाती है , किस लिए सदियों से चक्कर लगाती है मुझे पल पल बदलती नज़र आती है । आशिक़ के दिल से आह निकली चांदनी रात सबको भाती हो , प्यार भरे दिलों में कैसी आग लगाती हो हर आशिक़ को अपनी महबूबा चौदवीं का चांद नज़र आती हो । पहली पहली पहचान में होने लगी तकरार सी , चांद और आशिक़ दोनों की बातों में दिखने लगी अहंकार की तलवार सी । धरती के वासी हो धरती को क्योंकर छोड़ दिया टुकड़ों में उसको बांट दिया लूटा पहले फिर दिल तोड़ दिया । अब मेरे घर चले आए हो मेरे नहीं धरती के जाये हो क्या जाना कभी धरती माता का दुःख-दर्द मेरे नहीं अपने तुम पराये हो । गांव शहर जाने क्या क्या कहते हो कि आबाद किया है मैंने देखा है सदियों से हमेशा पल पल धरती को बर्बाद किया है अब क्या मुझसे चाहते हो अनचाहे बिन बुलाए महमान हो तुम मुझको समझते हो ख़्वाब अपना अनजान हो तुम नादान हो तुम । देख रहा था चांद धरती पर कोई जश्न मनाता है मुझ पर अधिकार समझता है ख़ुद पर कितना इतराता है ख़ाली हाथ आया है बस इक झंडा साथ लाया है ये क्या कोई मनमानी है इकतरफ़ा प्यार जताया है मुझसे नहीं पूछा क्या चाहिए ये समझता है मुझे जीत लिया खुद अभी तलक मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं ये कोई जाल बिछाया है क्या रिश्ता है क्या नाता है क्यों बंधन में मुझको बांधना चाहता है । खुद अपने से अजनबी है अपना मुझको कहता है ये धरती को रौंदता कुचलता है ज़ुल्म करता है धरती के ज़ख़्म नहीं भरता घायल करता है जिसको माता कहता है । मेरा धरती से नाता क्या सूरज इसको समझाएगा धरती सूरज चंदा तारे नील गगन सबको समझना चाहता है ये शायद इक मतवाला है सागर की गहराई को गगन की ऊंचाई को समझा है मैंने जान लिया सच क्या झूठ क्या जान लिया बिना समझे है पहचान लिया खाला जी का घर समझ लिया अभिशाप मिला मान वरदान लिया । कतरे की भी औकात नहीं बंदे की अपनी ज़ात नहीं ये धुंवा है बादल नहीं है इस में बारिश का खेल नहीं कोई धर्म नहीं भेद भाव नहीं राजनीति की कुछ बात नहीं ये सिर्फ मुहब्बत की दुनिया है और धरती वालो तुमने प्यार करना छोड़ दिया है इस जहां में कुछ भी नहीं पाओगे याद रखना धरती को धरती रहने दो चांद सितारों की चाहत में जो बचा है सब लुटवा कर आखिर इक दिन पछताओगे ।

इंसान ने अपनी ताकत का हमेशा से गलत इस्तेमाल किया है कितनी खूबसूरत थी दुनिया देखो क्या तुमने हाल किया है । इक दूजे का सुख दुःख समझा नहीं मतलब का ऐसा खेल किया गुलामी की जंज़ीरों का जाल बिछाया खुद भी मुजरिम खुद ही मुंसिफ़ ऐसा अजब कारोबार किया है । फूलों का गुलदस्ता दे कर ख़ंजर से छिप कर वार किया है वही क़त्ल हुआ है जब भी जिस ने इंसान को इंसान समझ ऐतबार किया है । ये क्या कैसा निर्माण किया है सांस लेना तक दुश्वार किया है । धरती को स्वर्ग बना सकते है पर सब कुछ को हासिल करने को इंसानियत को शर्मसार किया है क्या क्या नहीं बंटाधार किया है । उस राह पर बढ़ते जाते हैं जिस की कोई मंज़िल ही नहीं कश्ती है पुरानी टूटी हुई पतवार भी हाथ से छूट गई मझधार में नैया डोल रही मांझी का भी ऐतबार नहीं ये राज़ नहीं कोई जाना दुश्मन है कौन कोई यार नहीं । चांद ढूंढ कर लाए हो रख दो किसी गरीब की झौंपड़ी में , इक दिया काफ़ी है चांद की चांदनी को कैद करोगे तो अमावस की अंधियारी रात मिलेगी । वैज्ञानिक नहीं जानते थे उनके आगाज़ का ये भी अंजाम होगा चांद पर किसका हक है किसकी मर्ज़ी है कोई फरमान होगा । चांद आशिक़ों का है उनका खुद इक निज़ाम होगा अपना नियम कायदा संविधान होगा । इक आशिक़ ने रपट लिखवाई है तौबा है दुहाई है धरती वालों ने बिना इजाज़त घुसपैठ किया है अपने साधन का अनुचित उपयोग किया है । यहां हर किसी को आने की इजाज़त नहीं है इस जहां की कोई सियासत नहीं यहां चलती अदावत नहीं किस लिए क्यों आये हैं ये कोई शराफ़त नहीं । चलिए चांद पर कुछ शायरी फिर से याद करते हैं । इक ग़ज़ल लता मंगेशकर जी की गाई हुई पेश है , दुर्गेश  नंदनी फिल्म से राजिंदर कृष्ण जी की लिखी हुई ,  संगीत हेमंत कुमार का है :- 
 

चांद निकलेगा जिधर हम न उधर देखेंगे , जागते सोते तेरी राह -ए - गुज़र देखेंगे । 

इश्क़ तो होंठों पे फ़रियाद न लाएगा कभी  , देखने वाले मुहब्बत का जिगर देखेंगे । 

फूल महकेंगें चमन झूम के लहराएगा , वो बहारों का समां हम न मगर देखेंगे । 

ज़िंदगी अपनी गुज़र जाएगी शाम ए ग़म में , वो कोई और ही होंगे जो सहर देखेंगे ।  

 



 

कोई टिप्पणी नहीं: