क़िताब की दर्दनाक दास्तां ( तिरछी नज़र ) डॉ लोक सेतिया
ये लिखने वाला भी नहीं जानता था छापने वाले को भी शायद इसकी उम्मीद नहीं थी किताब की बदनसीबी थी जो नहीं होना चाहिए था वही हो गया । क़िताब की ये व्यथा कोई समझेगा भी कैसे जब किसी को कागज़ की लिखावट छपाई काले रंग की स्याही की पढ़ने को लुभाती नहीं है । कहीं किसी कोने में पड़ी हुई है कितनी किताबों के बीच दबी हुई ख़ामोश हैं सब की सब अपना अपना अकेलापन अकेले सहती हुई । कोई किताब नहीं जानती उसके साथ पड़ी किताब के पन्नों पर क्या लिखा है । किताबों में क्या क्या नहीं है खुशियां हैं संवेदनाएं हैं शिक्षा है ज्ञान है जीवन की वास्तविकता से काल्पनिक परीकथाओं मनोरंजन तक सब है दुःख दर्द मानवीय सरोकार से प्यार मुहब्बत रिश्ते समाजिक संबंध की समझ शामिल है अथाह समंदर है । लेकिन जब कोई भीतर झांकता ही नहीं तो कंकर पत्थर हीरे मोती की परख कैसे होगी । कभी किताब को सर पर माथे पर लगाते थे आजकल किताब रद्दी वाले कबाड़ी के झोले में सिसकती दिखाई देती है । आपको हैरानी हो रही है तो बताना ज़रूरी है सुबह गली से गुज़रते कबाड़ी पर नज़र पड़ी तो बिल्कुल नई नवेली दुल्हन जैसी किताब दिखाई दी मुझे छत पर खड़े हुए । आवाज़ देकर रोका तो उसको लगा मुझे भी कोई पुराना सामान बेचना है , मैंने घर से बाहर गली में जाकर बात की और किताब की बात की तो उसने कहा आपको चाहिए तो दस रूपये कीमत है । अचरज से सवाल किया जिसने बेची दस रूपये में बेची है , नहीं साहब पांच रूपये में ख़रीदी है दस में बेचूंगा । खैर मैंने उसको मनचाहे दाम देकर किताब खरीद कर सर माथे लगाया और मां सरस्वती से क्षमा याचना की कहा जिस किसी ने भी ऐसा अपराध किया उसको माफ़ करना ।
कितने बड़े लेखक की पुस्तक है और कितनी बहुमूल्य कालजयी रचना बताकर इक और जुर्म नहीं करना चाहता फिर भी अनचाहे ही सालों पुरानी घटना याद आ गई है । लिखता था अखबार पत्रिकाओं में भी रचनाएं छपती थी और कई साथी सलाह देते रहते थे किताब छपवानी चाहिए । महानगर जाना हुआ तो इक प्रकाशक जो खुद बड़े नाम वाले लेखक भी थे उन से मुलाक़ात करने चला गया । उनको अपनी पांडुलिपि देकर निवेदन किया कि पढ़कर बताएं रचनाएं छपने के काबिल हैं भी या नहीं । जैसे कोई हंसता है उपहास करने जैसा जवाब मिला उन्होंने कहा हिंदी में किताब पढ़ता कौन है , ये तो आपको खुद पैसे खर्च कर दोस्तों को निःशुल्क बांटनी पड़ती है । उस के बाद कितने पन्नों की कैसी किताब कितनी प्रतियां कितने हज़ार में छपेंगी हिसाब समझाने लगे थे । ये सपने में भी नहीं सोचा था बस किसी तरह निकला बाहर भागा तेज़ी से सड़क तक आते आते सांस चढ़ी हुई थी ।
तीस साल बीत गए फिर किसी प्रकाशक से मिलने का हौंसला नहीं कर सका । जीवन में बहुत उल्टा सीधा कर लिया तब विचार आया चलो ये भी कर देखते हैं कुछ नहीं होगा तो तजुर्बा ही सही । ये आदत रही है आगे बढ़े कदम रुकते नहीं और मंज़िल की चाह रखे बगैर सफर करता रहा हूं । जिस जहां की जिस मंज़िल की तलाश मुझे है शायद इक ख़्वाब ही है जिस को हक़ीक़त बनाना मेरी आरज़ू है । सब सोच समझ कर पूरी तैयारी से किताब छपवाने का हौसला किया और किताब छपवा कर समझा सब शानदार अनुभव है । लेकिन कहां मालूम था कि अभी दुश्वारियां ही दुश्वारियां सामने हैं । किताब छपना काफी नहीं पाठक तक किताब पहुंचाना उसको पढ़ने को उत्साहित करना टेढ़ी खीर है । लिखने वाला फिर उसी मोड़ पर खड़ा होता है कभी अखबार पत्रिका वाले खूब आमदनी करते हैं लेकिन लिखने वाले को कोई कीमत नहीं मिलती किसी बंधुआ मज़दूर की तरह या नाम को मानदेय राशि जिस से कोई जीवन यापन नहीं कर सकता है । नवोदित लेखक को आसानी से सोशल मीडिया पर किताबों के सौदागर मिलते हैं जो बिना परखे रचनाओं की किताब छापने का कारोबार कर खूब कमाई करते हैं । उस के बाद किताब की हालत पर कोई ध्यान नहीं देता , कोई खुद को लेखक समझने कहलाने पर संतोष कर लेता है कुछ हज़ार खर्च कर और कोई किताबें छापने का मुनाफ़े का व्यौपार कर मौज से रहता है । कितनी तरह की किताबें कहां अपनी बदहाली पर आंसू बहाती हैं किसी को अपनी दर्द भरी व्यथा कथा सुना नहीं सकती हैं । उस के आगे की दर्द भरी दास्तां कैसे लिखें किस को पढ़नी है क्योंकि लिखने वाला भी इक दौड़ में शामिल होने को अभिशप्त है इनामात सम्मान नाम शोहरत की भागम भाग में वास्तविक उद्देश्य समाज को आईना दिखाने का बदलाव का न्याय समानता का भेदभाव समाप्त करने वाले देश समाज दुनिया के निर्माण का पीछे छूट जाता है ।
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर विचार
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