किताबें मेरी ख़त हैं दोस्ती वाले ( अंदाज़ अलग है ) डॉ लोक सेतिया
जनाब साक़िब लखनवी अज़ीम शायर हैं कहते हैं
' ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था , हमीं सो गये दास्तां कहते कहते '।
कोई पचास साल पहले कही थी मैंने पहली ग़ज़ल
' किसे हम दास्तां अपनी सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं ।
उसी इक दोस्त इक मेहरबां की तलाश में क्या क्या नहीं लिखता रहा । बेनाम शख़्स अनजान नगर गांव , बिना पता - जाने , ठिकाना बताए , भेजे ख़त लिख लिख कर कोई जवाब नहीं मिला , अधिकांश ग़ुम हो गए , कुछ वापस लौट आए मेरे पास खुद ही भेजे खुद ही पढ़े बार बार । ज़माना खुद को समझदार कहता है दावा करते हैं लिफ़ाफ़ा देख कर ख़त का मज़मून भांप लेते हैं काश किसी ने खोला होता और समझने की कोशिश की होती कि मेरे लिखे ख़त नहीं भीतर इक कोरा कागज़ भेजा है । मेरी मन की किताब को किसी ने झांका तक नहीं बस बाहर से आवरण को देख कुछ और ही समझते रहे लोग । पुस्तक का बाहरी कवर देख लोग भटक भी जाते हैं तो कभी अंदर लिखा पढ़ कर हैरान हो जाते हैं कुछ ऐसा संभव था कोई मुझे भीतर तक गहराई से जानता समझता तो जैसा सोचा उस के विपरीत पाकर दंग रह जाता । हर कोई चेहरा देखता रहा लिबास की सिलवटें गिनता रहा , साफ मन की कद्र किसी ने नहीं जानी । कभी जब लिखनी होगी किसी किताब के पन्नों पर अपनी कहानी , प्यास को हम लिखेंगे तब पानी । यही आदत रही है हमने कभी साक़ी को अपनी प्यास दिखलाई ही नहीं ज़िंदगी भर खाली जाम लिए बैठे रहे दुनिया की महफ़िल के मयख़ाने में । दोस्ती की भाषा समझते ही नहीं लोग , सभी को निस्वार्थ दोस्ती क्या होती है नहीं पता मतलब की बात सभी जानते हैं । इस दौर की दुनिया की महफ़िल में सिर्फ मैं ही तनहा नहीं रहा सच तो ये है कि भीड़ में हर कोई अकेला नज़र आया मुझे । ये कहने को लिखी अपनी पुरानी इक ग़ज़ल पढ़ता हूं , शायद समझ सके कोई ।
ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।
हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।
मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।
हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।
हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।
हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।
मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।
हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।
हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।
साक़िब लखनवी जी इक शेर में कहते हैं , कोई नक़्श और कोई दीवार समझा , ज़माना हुआ मुझ को चुप रहते रहते । शायद यही होता है ख़ामोश रहने से मगर बोलने से कब कौन क्या समझता है कहना और भी मुश्किल है । तभी बहादुर शाह ज़फ़र जी कहते हैं बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी , जैसे अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी । मैंने कुछ और लिखा मगर ज़माने ने कुछ और पढ़ा समझा जो जिस का नज़रिया था उस ने अपने ढंग से अर्थ निकाल लिया । जब कई साल बाद मुझे अपने लेखन को पुस्तक के आकार में छपवाना शुरू किया तब जान पहचान वाले लोगों दोस्तों को शायद लगा जैसा सभी किताब छपवाते हैं नाम शोहरत ईनाम पुरुस्कार आदि की कतार में खड़े होने को वही चाहत रही होगी । कुछ दिन बाद कुछ लोग पूछने लगे कि कैसा रहा पाठक वर्ग की प्रतिक्रिया , मुझे यकीन है ये सवाल करने वालों ने खुद मेरी किसी किताब को ठीक से पढ़ा नहीं होगा अन्यथा वो मुझ से रचनाओं भावनाओं की बात करते न कि इस तरह औपचारिक दुनियादारी की बातें । उनको रूचि थी कितनी किताबें बिकी कितनी आमदनी घाटा हुआ क्या खोया क्या पाया , मुझे इनकी चिंता कभी नहीं थी । कभी कभी होता है लेखक की बात पाठक को अपने अनुसार कुछ अलग लगती है जो स्वाभाविक है मगर कभी कोई शब्दों भावनाओं को ही नहीं समझता तब उलझन होती है । मुझे जिस की चाहत थी आखिर वो दिन वो पल-क्षण आ ही गए हैं । हर दिन कहीं से कोई फोन पर कॉल कर बात करता है क्या डॉ लोक सेतिया जी बात कर रहे हैं , हां कहने पर बताते हैं आपकी किताब मिली किसी तरह से पढ़ कर मन किया बातचीत करने को जानने समझने को । यही वास्तविक मूल्य है किताब का चाहे किसी भी लेखक की हो ।
कई बार ये बात कही है पहले भी , मैंने हर वर्ष डायरी शुरू करते एक ही हिसाब याद किया है वो ये कि पिछले साल कितने दोस्त बने कितने खो गए कितने अजनबी साथ चले कितने हमराही बिछुड़ गए । जैसे अधिकांश दुनिया वाले धन दौलत सोना चांदी हीरे जवाहरात के बढ़ते घटते खज़ाने का बही खाता लगाते हैं । मेरे पास इक पलड़े में दोस्ती रिश्ते नाते रहे हैं और तराज़ू की दूजी तरफ पलड़े में सच लिखने का मेरा जूनून और दोनों को बराबर रखने का असंभव सा काम जैसे दोधारी तलवार पर चलना मेरी विवशता रही है । सदा यही भरोसा किया है कोई भी मुझे पढ़ेगा समझेगा तो दोस्त बन कर हमेशा साथ रहेगा । किताबों ने मुझे कितने ऐसे लोगों से परिचित करवाया है यही दोस्ती मेरी सच्ची पूंजी हैं । कभी पढ़ा था किसी लेखक को समझना है तो उस के लेखन को पढ़ना ज़रूरी है अन्यथा नहीं जान सकते । मुझे आप या अन्य लोग जो समझते हैं बिना पढ़े ही सही नहीं हो सकता है , जानता हूं किसी को फुर्सत कहां मुझे जाने समझे फिर भी कभी जिन को दोस्ती प्यार मुहब्बत की ज़रूरत है पढ़ कर मेरी तरह दोस्त तलाश कर सकते हैं । मुझसे करोगे दोस्ती या कोई और मुझ से बेहतर ढूंढना चाहोगे ये आपकी मर्ज़ी है ।
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