भूल गए कलम की बात लिखना ( जुर्म-बेलज़्ज़त ) डॉ लोक सेतिया
ये कैसे हुआ कलम उदास है किसी लिखने वाले को लेखनी की याद तक नहीं आई । मुझे उसकी हालत पर रोना आ गया । हाथ में लेकर चाहा आजकल के दौर को लेकर कुछ लिखना तो लगा जैसे स्याही सूख गई है मेरी कलम की । कलम को मेरी विवशता समझ आई तो कहने लगी तुमने हमेशा अपने अश्कों से अपने लहू से समाज की दुःख दर्द की बात कही है । लिखते लिखते जीवन बिताया है और तब कहीं जाकर खुद अपने और किताबों को लेकर लिखा है अन्यथा अपना सुख दुःख ख़ुशी ग़म छोड़ समाज की खातिर आंसू बहाए हैं तुमने । आज जब मुझे थामा है उठाया है कलम को समाज की वास्तविक दशा लिखने को तब मेरी बेबसी पर परेशान हो रहे हो । मैं इस दौर की सच्ची बात लिख नहीं सकती क्योंकि समाजिक मर्यादाओं आदर्शों नैतिक मूल्यों का पतन इस सीमा तक हो चुका है कि लिखने को स्याही आंसू नहीं खून भरना पड़ेगा और लिखने वाले तुझ में खून बचा ही कितना है और किसी का लहू तुम नहीं भर सकते मुझ में , भले आदमी का लहू पानी से सस्ता बाज़ार में मिलता है । साहित्य शिक्षा से लेकर देश समाज की वास्तविकता की बात करने खुद को सच का झंडाबरदार समझने वाले तक कलम से नाता तोड़ चुके हैं कागज़ कलम स्याही की दवात बीते ज़माने की बात हो गये हैं । कलम क्या होती है तलवार को पराजित कर सकती है इस को समझना उनके बस की बात नहीं जो बिक कर लिखते हैं अपना ज़मीर मार कर चाटुकारिता करते हैं और जिसकी अनुकंपा से धन दौलत सुख सुविधा साधन पाते हैं उन्हीं की भाषा में राग दरबारी गाकर शासकों का गुणगान करते हैं उनको मसीहा बतलाते हैं ।
कलम की व्यथा-कथा कोई लिखे भी तो कैसे जब कलम खुद प्यासी है और कोई भी स्याही किसी भी लिखने वाले क़लमकार के पास बची नहीं है । जिस कलम से मुहब्बत की दास्तानें लिखी प्यार वाले गीत लिखे ग़ज़ल कविता में एहसास भरे उस कलम से आधुनिक युग की खोखली झूठी मनघडंत कहनियां कोई किस तरह लिख सकता है हाथ कांपते हैं रूह बेचैन होती है ये हालात देख कर जब हर तरफ हिंसा नफरत और समाज को बांटने की कोशिश करने को बढ़ावा दिया जा रहा है । अनैतिकता आदर्श बन गई है और देशसेवा लूट का कारोबार और घना अंधकार खुद को सूरज घोषित कर रहा है । तस्वीरों ने अपनी झूठी चमक दमक से शब्दों को धुंधला कर दिया है कलम ने जो लिखा पढ़ा नहीं जा सकता है समय की धूल ने कागज़ किताब को ढक दिया है और आईना वास्तविक शक़्ल को नहीं दिखलाता है जो बहुत भयानक बदसूरत है आधुनिक समाज की और नकली रौशनी सबको परेशान कर रही है । आंखें हैं फिर भी अंधे बने हैं लोग मुंह में ज़ुबान है फिर भी गूंगे बन गए हैं सभी , सब सामने है मगर दिखाई कुछ भी नहीं देता । सभी लिखने वालों ने अपनी कलम को या तो कहीं रख छोड़ा है बेकार बेजान समझ कर या उस से रिश्ता तोड़ लिया है और लैपटॉप कंप्यूटर कीपैड पर उंगलियां चलती हैं लिखती हैं शब्द जिन में संवेदना का अभाव होता है ।
ऐसे में पुरानी बंद पेटी से कितने ख़त कितने रंगों की स्याही से अलग अलग लिखावट के अनगिनत स्वरूपों वाले निकाल देख रहा हूं । इक इक शब्द एहसास से भरा हुआ महसूस होता है किसी डायरी में कोई सूखा फूल अभी भी याद ताज़ा कर रहा है और कोई किताब के पन्नों के बीच रेशमी राखी जैसा धागा आधी पढ़ी किताब की याद दिलाता है । कैसे कैसे कागज़ कितनी तरह की छवियां कितने रंग की खुशबूदार स्याही देख कर लगता है उन फूलों भरे गुलशन को छोड़ हम लोग इक तपते झुलसते रेगिस्तान में चले आये हैं , भागते फिरते हैं किसी हिरण की तरह चमकती रेत को पानी समझ मृगतृष्णा का शिकार हुए हम सभी । कितना कुछ याद रहता है जो भुलाये नहीं भूलता पुराना बेहद खूबसूरत हुआ करता था । काश कोई फिर से लौटा सकता वो गुज़रा ज़माना । कलम का कागज़ से स्याही वाला रिश्ता बहुत अच्छा था बड़ा सुहाना ।
1 टिप्पणी:
बढ़िया आलेख👌👍
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