मार्च 07, 2021

गांव का अपना सब मकां ढूंढते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव का अपना सब मकां ढूंढते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव का अपना सब मकां ढूंढते हैं 
गर्मियों की फिर छुट्टियां ढूंढते हैं। 
 
देख कर शायद उनको पहचान लेंगे 
पांव के बाक़ी कुछ निशां ढूंढते हैं। 
 
ख़्वाब सारे इक दिन तो होंगे ही पूरे 
उम्र भर हम ऐसे  गुमां ढूंढते हैं। 
 
हो गई धुंधली अब नज़र जब हमारी 
फिर पुराना हम कारवां ढूंढते हैं। 
 
आग नफरत की जल रही हर तरफ है 
प्यार वाली सब दास्तां ढूंढते हैं। 
 
अब कहां होते लोग पहले के जैसे 
हम उन्हीं जैसे रहनुमां ढूंढते हैं। 
 
अजनबी दुनिया बेरहम लोग सारे
और हम "तनहा" मेहरबां ढूंढते हैं। 
 

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर।
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।