संवाद विवाह से पहले शादी के बाद ( वार्तालाप ) डॉ लोक सेतिया
बात घर घर की है जानते हम भी हैं समझते आप भी हैं मानते नहीं ज़माने से छिपाते हैं। पत्नी समझ नहीं पाई बड़ी हैरान है पति किस बात को लेकर परेशान है। बोली अपने नेता जी आपको क्यों भला खराब लगते हैं हमको बड़े लाजवाब लगते हैं उनके रंग ढंग सज धज देखते हैं सभी सच कहो वही असली नवाब लगते हैं। पति कहने लगे कितने झूठे हैं क्या क्या वादे किये थे नहीं निभाए हैं। पत्नी ने समझाया आप समझ नहीं पाये हैं अच्छे दिन उनके खूब आये हैं। वादे क्या आपने मुझसे निभाए हैं चांद तारे तोड़ कर लाये हैं आपसे अच्छे हैं जो पत्नी को अकेली छोड़ आये हैं खुद कमाती है चैन से रहती है अपनी असलियत समझा आये हैं। नाज़ नखरे नहीं उठाये हैं इतनी सी बात है सितम जीवन भर नहीं ढाये हैं। कहा हमने आत्मनिर्भरता की किताब खुद नहीं पढ़ते जो लोग सबको सबक समझाते हैं। उनकी पढ़ाई में महनतकश लोग परजीवी कहलाते हैं। ये कैसे लोग हैं जो जिनके कांधे पर चढ़कर ऊपर पहुंचे उन्हीं को किनारे लगाते हैं। एहसानों का बदला क्या इसी तरह चुकाते हैं। पत्नी को बहस में कोई नहीं हरा सकता है बोली कोई सच सच बता सकता है , आप सभी पति खुद को गुलाम कहते रहते हैं ज़िंदगी भर शिकवा करते हैं छोड़ते हैं न पत्नी को छोड़ने देते हैं। आपको ज़माने की खबर नहीं है शान उनकी है जिन पर किसी बात का होता असर नहीं है। मुझे अध्यापिका जी ने कहानी सुनाई थी शादी की बात समझाई थी मैं सुनकर शर्माई थी हो चुकी अपनी सगाई थी पीछे कुंवां था सामने खाई थी। मत पूछो राम दुहाई थी जब मिलती मुझे बधाई थी मुसीबत सर पर खड़ी थी बजने लगी शहनाई थी।
शादी इक झमेला है असल में हर कोई अकेला है दुनिया क्या है इक मेला है मेले में खेल तमाशा होता है खेल जिसने खेला है बस वही अलबेला है। खेलने वाले होते खिलाड़ी हैं हम सभी तमाशाई हैं अनाड़ी हैं। तमाशे में खेल घड़ी भर होता है खेल ख़त्म पैसा हज़्म ये मनोरंजन कहलाता है , उनसे खूबसूरत खेल तमाशे रोज़ नहीं कोई दूसरा दिखलाता है। समझदार वही कहलाता है जो कुछ भी नहीं करता मौज मनाता है यार दोस्तों से यारी निभाता है उसका कोई नहीं बही खाता है। बस वो सभी का हिसाब बताता है अपना हिसाब कभी नहीं बताता है। उल्लू बनाना हुनर नहीं सभी को आता है। कोई बच्चा मिट्टी के खिलौने बनाता है कोई बाज़ार से खिलौने खरीद लाता है जो बच्चा दोनों से खिलौने छीन कर खेलने के बाद दिल भर जाए तोड़ डालता है दबंग कहलाता है। भविष्य में बड़ा होकर नेता बनकर राज चलाता है। ज़िंदगी का असली मज़ा वही उठाता है जो मैं चाहे ये करूं मैं चाहे वो करूं मेरी मर्ज़ी गाकर सबको चिढ़ाता है। नानी ने मुझे समझाया था नारी और पुरुष का अंतर बताया था। महिला पत्नी बनकर सुई से भी घर बना सकती है जिसको पति पुरुष होकर भी कस्सी से भी गिरा नहीं सकता है। मगर अविवाहित जो मिल जाये उसी से काम चलाता है वो किसी बात से नहीं घबराता है। लेकिन जो विवाहित होकर अकेला रहता है कुंवारा नहीं न शादीशुदा कहलाता है बीच में लटका मझधार में नैया लाकर डुबाता है उसको बर्बाद करने का बड़ा मज़ा आता है। शादी वाला लड्डू खाने वाला भी और बिना खाये भी हर शख़्स पछताता है बस कोई कोई इस हाथ लड्डू उस हाथ रस्सगुल्ला लेकर बहती गंगा में डुबकी लगाता है। चार दिन में विवाहित होने का अर्थ समझ कर भाग जाता है। जिसको गुलाम बनाना आता है आज़ाद पंछी पिंजरा छोड़ जाता है।
सभी विवाहित महिला पुरुष बंद पिंजरे के वासी हैं दिल चाहता है तोड़ कर पिंजरा उड़ने को मगर हिम्मत नहीं जुटाते हैं। पिंजरे से प्यार करने लग जाते हैं बाहर निकलने से डरते हैं घबराते हैं नसीब वालों को सोने का पिंजरा मिलता है मिट्ठू मिंयां समझाते हैं। पति पत्नी लड़ते हैं झगड़ते हैं फिर मिल जाते हैं जिसको सबसे खराब समझते हैं प्यार उसी पर लुटाते हैं। प्यार मुहब्बत इसी को कहते हैं रूठते हैं मनाते हैं मान जाते हैं रिश्ता निभाना है निभाते हैं। साथ साथ रहकर दोस्ती और दुश्मनी दोनों निभाते हैं। आपसे अच्छा कोई दुनिया में नहीं बहुत खराब हैं आप दुविधा को इस तरह बढ़ाते हैं। उनको भूला हुआ नहीं कहते हैं जो सुबह घर से जाते शाम ढले लौट आते हैं। चलो इक गीत सुनते हैं वार्तालाप को विराम लगाते हैं।
5 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-03-2021) को "चाँदनी भी है सिसकती" (चर्चा अंक-3994) पर भी होगी।
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मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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वाह. बहुत खूब
अत्यंत रोचक...
रोचक संवाद रहा।
महोदय आपके कमैंट्स के लिए धन्यवाद मगर ये बात अनावश्यक लगती है कि आप मुझे अन्य ब्लॉग पर कमेंट करने को सलाह देते रहते है। अपनी सहूलियत और मर्ज़ी सभी की जैसा उचित लगे हर कोई आज़ाद है और बदले में पढ़ना कमेंट करना मेरा ये कारोबार नहीं है। जिनको अच्छा लगता है पढ़ सकते हैं सौदेबाज़ी साहित्य में कब से होने लगी। सच्ची साफ बात कहना आदत है।
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