फ़रवरी 25, 2020

अतिथि फिर मत आना ( आदर्शों मानवीय मूल्यों से भटके हम लोग ) डॉ लोक सेतिया

 अतिथि फिर मत आना ( आदर्शों मानवीय मूल्यों से भटके हम लोग )

                                   डॉ लोक सेतिया 

     धूम मची है सरकारी महमान की राजसी आवभगत करने की। हर कोई महमान तो भगवान होता है कहता दिखाई देता है। कल मैंने कुछ ऐसे दोस्तों से कहा आपसे मिलने आपके निवास आना है हर कोई बहाने बनाता मिला आज तो बाहर जाना है कोई ज़रूरी काम है सब की विवशता थी। घर आये बिना बुलाये महमान को कब जाओगे नज़र पूछती है। ये सत्ताधारी नेता और सरकारी अधिकारी देश के खज़ाने को जम कर लुटाते हैं अपने संबंध बनाने को। सामाजिक संस्थाओं के समाजसेवी कहलाने वाले लोग भी चंदा देने से लेकर नेताओं अफसरों को सभाओं में बुलाकर उपहार देने तक सब संस्था के खाते से करते हैं। किसी पद पर आसीन होते ही उस का धन संसाधन निजी स्वार्थ की खातिर खूब उड़ाते हैं। माले-मुफ्त , दिले -बेरहम। 

     शासक राजा रहे हों या अब जनता के निर्वाचित कहने को जनता के सेवक सभी पाषाण हृदय होते हैं जिनको किसी पर भी दया नहीं आती है। देश का खज़ाना बर्बाद करते उनको कोई संकोच नहीं होता कोई अपराधबोध नहीं होता कि जिनकी खातिर ये धन है उनकी दशा अभी भी कितनी बदहाल है। और ये बात केवल इक विदेशी महमान पर सौ करोड़ खर्च करने की नहीं है हर दिन कितने आयोजन समारोह मानते हुए वास्तव में आप अपनी अमानवीयता का ही सबूत देते हैं। आपकी बनाई करोड़ों की मूर्ति या फिर किसी राजा का बनाया ताजमहल दोनों की कहानी इक जैसी है। अपने आखिरी समय में वही शासक अपने बनवाये ताजमहल को कैद में बंद झरोखों से देखता था तब शायद सोचा हो कितने गरीबों की भलाई हो सकती थी अपनी झूठी मुहब्बत की इक निशानी बनाने की आरज़ू ने कितना बड़ा गुनाह करवा दिया। 

      अपने घोटालों की कितनी कहानियां सुनी हैं मगर घोटाले और भी हैं जैसे जिनकी लाशें नहीं मिलीं उनके कत्ल करने वाले भी मसीहा बने बैठे रहे। जितना धन सरकारों ने आडंबरों पर आये दिन बर्बाद किया और अपनी शोहरत के झूठे सच्चे इश्तिहार छपवाने पर खर्च किया किसी अपराध से कम नहीं था। करोड़ों लोग भूख से मर जाते है याद है भात भात करती इक बच्ची मर गई थी वो इक उदारहण था अकेली वही नहीं मरी। सरकारों को इस लिए माफ़ नहीं किया जा सकता कि उनके गुनाह साबित नहीं किये जा सके। किसी शायर का इक शेर है जो समझाता है :-

                वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता ,

                  यो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं।

     इस देश की बदनसीबी है शासकों ने कभी समय पर जनता की समस्याओं का समाधान नहीं किया है। बल्कि शायद उनकी राजनीती ही समस्याओं को बढ़ाये रखने की रही है। मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है क्या मेरे हक में फैसला देगा। धर्म और ईश्वर की बात करना मत अगर उनसे डरते तो शासक अपने वास्तविक धर्म से कभी नहीं भटकते।

 कोई दिन पंडित जी बताया करते हैं कि आने जाने को अशुभ होता है। मैंने कभी इन बातों पर यकीन नहीं किया था। जाने क्यों याद आया यही तारीख थी नमस्ते नमस्ते का शोर था भारत से अमेरिका तक। आज दो महीने बाद अपने इस आलेख को पढ़कर लगा ये कैसा महमान आया था जिसके जाने के ठीक एक महीने बाद देश भर को घर में बंद रहने का फरमान जारी किया गया था पिछले महीने 24 मार्च को और आज 24 अप्रैल को भी हम सभी घर में बंद हैं या छुपकर बैठे हैं। कोई अतिथि आता भी नहीं और कोई किसी को बुलाता भी नहीं। हर कोई हर किसी से दूर रहने को विवश है दिल से दिल मिलने की बात क्या करें हाथ से हाथ मिलाना छोड़ दिया है। नमस्ते ट्रम्प से शुरुआत हुई और ऐसा हुआ कि दूर ही से हाथ जोड़ नमस्कार करने की विवशता बन गई है। नमस्ते आदर सूचक शब्द हुआ करता था जो आजकल विवशता का अभिप्राय बन गया है। आज के युग की भी कोई नई महाभारत लिखता तो कोई यक्ष अंतिम सवाल बदलकर  पूछता कि हैरानी क्या है तो जवाब मिलता सब जानते हैं मौत घर पर छुपने से भी लौटेगी नहीं और जब भी आमना सामना होगा भागकर नहीं बच सकते हैं किसी दुश्मन से लड़ाई लड़कर ही जीती जाएगी।



कोई टिप्पणी नहीं: