दिसंबर 09, 2018

मायने बदल गये हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

         मायने बदल गये हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

      मकसद जनता का ध्यान सरकार के वास्तविक वादों को नहीं पूरा करने की सच्चाई से भटकाना है और अगले चुनाव को फिर एक बार नया झांसा देकर किसी भी तरह जीत कर सत्ता से चिपके रहने की ख्वाहिश को पूरा करना है। मगर ऐसे राजनीतिक कार्य को धर्म सभा नाम दिया जा रहा है अर्थात धर्म वालों को सोचना पड़ेगा कि क्या यही इस युग का धर्म है कि धर्म को ढाल बनाने से आगे तलवार बनाने का कार्य किया जाये। धर्म सभा धर्म को समझने को हुआ करती थी कभी इधर धर्म को समझना तो दूर धर्म का पालन करना भी उनका मकसद नहीं है उनको धर्म की आड़ लेकर वोटों की राजनीति करनी है। ऐसी इक सभा से लौटकर कोई अपने भगवान को लेकर एक नई आधुनिक कथा लिखने का कार्य कर रहा है उसे समझ आ चुका है भविष्य में यही सब से महत्वपूर्ण और आवश्यक बन सकती है और जिस तरह कभी अटल बिहारी वाजपेयी जी की जीवनी की किताब को बेचने में यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों को निर्देश दिया था उसे फिर से दोहराया जा सकता है। पहले मेरे दो पुराने व्यंग्य। 

               1       मेरी भी किताब बिकवा दो ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

         मुझे भी अपनी किताब बेचनी है। अब मुझे ये भी पता चल गया है कि किताब कैसे बेची जा सकती है। बस एक सिफारिश का पत्र  यू.जी.सी. चेयरमैन का किसी तरह लिखवाना है। जैसा १६ अक्टूबर २००२ को यूजीसी के अध्यक्ष अरुण निगवेकर ने लिखा है सभी विश्व विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं को , प्रधानमंत्री जी की जीवनी की पुस्तक खरीदने की सलाह देते हुए। "जननायक " किताब की कीमत अगर चार हज़ार रुपये हो सकती है तो मुझ जैसे इक जनलेखक की किताब चालीस रुपये में बिक ही सकती है। कुछ छूट भी दे दूंगा अगर कोई सौ किताबें एक साथ खरीद ले। मुनाफा न सही छपाई का खर्च तो निकल ही आएगा। मुफ्त में मित्रों को उपहार में देने से तो अच्छा है। समस्या यही है कि यूजीसी वाले मुझे नहीं जानते , मैं उनको जनता हूं ये काफी नहीं। मगर अभी पूरी तरह कहां जानते हैं लोग उसको।  अभी तक सुना था वो अनुदान देते हैं , किताबें भी बिकवाते हैं अब पता चला है। इक सत्ताधारी मुझे समझा रहे थे कि ये ज़रूरी होता है , बिना प्रचार के कुछ नहीं बिकता , साबुन तेल से इंसान तक सब को बाज़ार में बिकने को तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। अब प्रधानमंत्री जी के प्रचार के लिये क्या इस देश के गरीब चार हज़ार भी खर्च नहीं कर सकते। आखिर कल यही तो इतिहास में शामिल किया जायेगा। उधर पुस्तकालय वालों का कहना है कि उनको कोई एक दो प्रति थोड़ा खरीदनी होगी , थोक में खरीदनी होती है। यूजीसी कहेगी तो प्रकाशक से छूट या कमीशन कौन मांग सकता है। मुझे मेरी बेटी ने बताया कि दूसरी कक्षा में पास होने के लिये उसकी अध्यापिका ने भी सभी छात्रों को एक किताब खरीदने को विवश किया था। मैंने जब स्कूल के अध्यापक से पूछा कि आप कैसे किसी किताब को ज़रूरी बताते हैं तो उनका कहना था कि जो प्रकाशक उनसे मिलता है आकर उसी की किताब को ही अच्छा बता सकते हैं जो मिला ही नहीं आकर उसकी किताब को किसलिये सही बतायें। उनकी बात में दम है , मुझे भी किसी तरह यूजीसी के चेयरमैन से जानपहचान करनी ही चाहिये। क्या खबर वे भी यही सोचते हों कि मैं उनको मिलने आऊं तभी तो वे मेरी किताब की सिफारिश करें। शायद वो इसी इंतज़ार में हों कि मैं मिलूं तो वे पत्र जारी करें।
 
                                सोचते सोचते उन नेता जी की याद आई जिनकी सुना है राजधानी तक पहचान है। लगा कि वे फोन कर देंगे तो बात बन सकती है। मगर नेता जी को पता ही नहीं था कि यूजीसी किस बला का नाम है। वे आठवीं पास हैं , कभी सुना ही नहीं था कि ये किस चिड़िया का नाम है। फिर ध्यान मग्न हो कुछ सोचने लगे , अचानक नेता जी को कोई उपाय सूझा जो वो मुझे पकड़ कर अपने निजि कक्ष में ले गये। मुझे कहने लगे तुम चिंता मत करो , तुम जितनी किताबें छपवाना चाहो छपवा लो , मैं सारी की सारी खरीद लूंगा। अगर मैं भी उनका एक काम कर दूं। वे चाहते हैं कि मैं उनकी जीवनी लिखूं जिसमें उनको नेहरू -गांधी से भी महान बताऊं। मैं अजीब मुश्किल में फंस गया हूं , इधर कुआं है उधर खाई। घर पर आया तो देखा श्रीमती जी ने रद्दी वाले को सारी किताबें बेच दी हैं तोल कर , पूरे चालीस किलो रद्दी निकली मेरी अलमारी से आज शाम को। एक और रचना भी भगवान को लेकर है जो शायद आपको कल्पना से बढ़कर वास्तविकता लग सकती है। मैंने धर्म मीडिया वालों से लेकर भगवान तक को लेकर व्यंग्य लिखने का कार्य किया है और कई लोग समझते हैं ऐसा करना नास्तिकता की बात है मगर वास्तव में धर्म समझने की बात है और जिस को अपने समझना है उस पर मन में सवाल खड़े होना लाज़मी है। धर्म सभा आयोजित की इसी लिये जाती रही हैं कि विचार विमर्श किया जाये और अपने धर्मं की विसंगतियों विडंबनाओं को सही किया जाये। मैं मंदिर जाता हूं और आगे जिस घटना की बात है वो मंदिर जाने पर ही संभव हुई मगर उस रचना को छापना हर संपादक को मंज़ूर नहीं था फिर भी छपी थी। पढ़ सकते हैं।

            2          लेखक से बोले भगवान ( कटाक्ष ) डा लोक सेतिया 

          आज फिर वही बात , जब मैंने हाथ ऊपर उठाया मंदिर का घंटा बजाने को तो पता चला घंटा उतरा हुआ है। मन ही मन मुस्कुराते हुए भगवान से कहना चाहा " ऐसा लगता है तुम्हारे इस मंदिर के मालिक फिर आये हुए हैं "। जब भी वह महात्मा जी यहां पर आते हैं सभी घंटे उतार लिये जाते हैं , ताकि उनकी पूजा पाठ में बाधा न हो। ऐसे में उन दिनों मंदिर आने वाले भक्तों को बिना घंटा बजाये ही प्रार्थना करनी होती है। कई बार सोचा उन महात्मा जी से पूछा जाये कि क्या बिना घंटा बजाये भी प्रार्थना की जा सकती है मंदिरों में , और अगर की जा सकती है तब ये घंटे घड़ियाल क्यों लगाये जाते हैं। पूछना तो ये सवाल भी चाहता हूं कि अगर और भक्तों के घंटा बजाने से आपकी पूजा में बाधा पड़ती है तो क्या जब आप इससे भी अधिक शोर हवन आदि करते समय लाऊड स्पीकर का उपयोग कर करते हैं तब आस-पास रहने वालों को भी परेशानी होती है , ये क्यों नहीं सोचते। अगर बाकी लोग बिना शोर किये प्रार्थना कर सकते हैं तो आप भी बिना शोर किये पूजा-पाठ क्यों नहीं कर सकते। बार बार मेरे मन में ये प्रश्न आता है कि किसलिये महात्मा जी के आने पर सब उनकी मर्ज़ी से होने लगता है , क्या मंदिर का मालिक ईश्वर है अथवा वह महात्मा जी हैं। ये उन महात्मा जी से नहीं पूछ सकता वर्ना उनसे भी अधिक वो लोग बुरा मान जाएंगे जो उनको गुरु जी मानते हैं। इसलिये अक्सर भगवान से पूछता हूं और वो बेबस नज़र आता है , कुछ कह नहीं सकता। जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि भगवान ऐसे मंदिरों में कैद है , छटपटा रहा है।

                   कुछ दिन पहले की बात है। मैं जब मंदिर गया तो देखा भगवान जिस शोकेस में कांच के दरवाज़े के पीछे चुपचाप बैठे रहते हैं उसका दरवाज़ा खुला हुआ था। मुझे लगा शायद आज मेरी आवाज़ भगवान सुन सके , कांच की दीवार के रहते हो सकता है मेरी आवाज़ उस तक नहीं पहुंच पाती हो। मैं अपनी आंखें बंद कर प्रार्थना कर रहा था कि अचानक आवाज़ सुनाई दी " हे लेखक तुम सब की व्यथा लिखते रहते हो , कभी तो मेरे हाल पर भी कुछ लिखो " मैंने चौंक कर आंखें खोली तो आस-पास कोई दिखाई नहीं दिया। तभी उस शोकेस से भगवान जी बोले , " लेखक कोई नहीं है और यहां पर , ये मैं बोल रहा हूं तुम सभी का भगवान"। मैंने कहा प्रभु आपको क्या परेशानी है , कितना बड़ा मंदिर है यह आपके लिये , कितने सुंदर गहने - कपड़े आपने पहने हुए हैं , रोज़ लोग आते हैं आपकी अर्चना करने , सुबह शाम पुजारी जी आपका भोग लगाते हैं घंटी बजा बजा कर। किस बात की कमी है आपको , कितने विशाल मंदिर बने हुए हैं हर शहर में आपके। जानते हो भगवान आपके इस मंदिर को भी और बड़ा बनाने का प्रयास किया जा रहा है , कुछ दिन पहले मंदिर में सड़क किनारे वाले फुटपाथ की पांच फुट जगह शामिल कर ली है इसको और सुंदर बनाया जा रहा है। क्या जानते हो भगवान आपकी इस सम्पति का मूल्य अब करोड़ों रूपये है बाज़ार भाव से , और तेरे करोड़ों भक्त बेघर हैं। साफ कहूं भगवान , जैसा कि तुम सभी एक हो ईश्वर अल्ला वाहेगुरु यीशू मसीह , तुम से बड़ा जमाखोर साहूकार दुनिया में दूसरा कौन हो सकता है। अकेले तेरे लिए इतना अधिक है जो और भी बढ़ता ही जाता है। अब तो ये बंद कर दो और कुछ गरीबों के लिये छोड़ दो। अगर हो सके तो इसमें से आधा ही बांट दो गरीबों में तो दुनिया में कोई बेघर , भूखा नहीं रहे।

       प्रभु कहने लगे " लेखक क्यों मज़ाक कर रहे हो , मेरे जले पर नमक छिड़कने जैसी बातें न करो तुम। मुझे तो इन लोगों ने तालों में बंद कर रखा है। तुमने देखा है मेरे प्रमुख मंदिर का जेल की सलाखों जैसा दरवाज़ा , जिस पर पुजारी जी ताला लगाये रखते हैं। क्या जुर्म किया है मैंने , जो मुझे कैद कर रखते हैं। इस शोकेस में मुझे कितनी घुटन होती है तुम क्या जानो , हाथ पैर फैलाने को जगह नहीं। ये कांच के दरवाज़े न मेरी आवाज़ बाहर जाने देते न मेरे भक्तों की फरियाद मुझे सुनाई पड़ती है। सच कहूं हम सभी देवी देवता पिंजरे में बंद पंछी की तरह छटपटाते रहते हैं "।

                     तभी किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी और भगवान जी चुप हो गये अचानक। मुझे उनकी हालत सर्कस में बंद शेर जैसी लगने लगी , जो रिंगमास्टर के कोड़े से डर कर तमाशा दिखाता है , ताकि लोग तालियां बजायें , पैसे दें और सर्कस मालिकों का कारोबार चलता रहे। पुजारी जी आ गये थे , उन्होंने शोकेस का दरवाज़ा बंद कर ताला जड़ दिया था। मैंने पूछा पुजारी जी क्यों भगवान को तालों में बंद रखते हो , खुला रहने दिया करो , कहीं भाग तो नहीं जायेगा भगवान। पुजारी जी मुझे शक भरी नज़रों से देखने लगे और कहने लगे आप यहां माथा टेकने को आते हो या कोई और ईरादा है जो दरवाज़ा खुला छोड़ने की बात करते हो। आप जानते हो कितने कीमती गहने पहने हुए हैं इन मूर्तियों ने , कोई चुरा न ले तभी ये ताला लगाते हैं। जब तक मैं वहां से बाहर नहीं चला गया पुजारी जी की नज़रें मुझे देखती ही रहीं। तब से मैं जब भी कभी मंदिर जाता हूं तब भगवान को तालों में बंद देख कर सोचता हूं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर भी अपने अनुयाईयों के आगे बेबस हैं। जब वो खुद ही अपनी कोई सहायता नहीं कर सकते तब मैं इक अदना सा लेखक उनकी क्या सहायता कर सकता हूं। इन तमाम बड़े बड़े साधु , महात्माओं की बात न मान कौन इक लेखक की बात मानेगा और यकीन करेगा कि उनका भगवान भी बेबस है , परेशान है। 
 
              भगवान आज भी बेबस हैं क्योंकि बात भगवान के मंदिर की नहीं की जाती कभी भी , मंदिर भगवान की ज़रूरत नहीं हैं उनकी मज़बूरी हैं जो धर्म की राजनीति करते हैं। वास्तविक धर्म से उनको कुछ लेना देना नहीं है उनके लिए भगवान आस्था का नहीं सत्ता हासिल करने का रास्ता हैं। धर्म सभा में चर्चा तो इसको लेकर की जानी चाहिए कि भगवान को ऐसे लोगों के चंगुल से कैसे मुक्त करवाया जाये जो धर्म का कारोबार करते हैं। धर्म समझाता है संचय मत करो और दीन दुःखियों की सेवा उनके कष्ट दूर करना भगवान की पूजा है इबादत है जबकि तमाम धार्मिक स्थल अकूत धन वैभव संम्पति जमा किये हुए हैं। मानव कल्याण पर धन खर्च करने की जगह मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे बनाना धर्म नहीं हो सकता है। 

कोई टिप्पणी नहीं: