सितंबर 11, 2017

कुछ कागज़ के कुछ पत्थर के ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

    कुछ कागज़ के कुछ पत्थर के ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

            बहार का मौसम था और फूलों की बात थी। फूल बंद हाल कमरे में सजे हुए थे तरह तरह के नाम रंग वाले। कोई सुगंध नहीं थी जबकि कितना इतर उपयोग किया गया था। सभा आयोजित की गई थी और सब को फूलों की ही बात करनी थी। सब लिख कर लाये थे पढ़कर सुनाने को , ये फूल कागज़ वाले थे जिनका दावा था वो मुरझाते नहीं कभी। किसी ने हाथ लगाया और सब कागज़ बिखर गए भरी सभा में। हर कोई अपनी बात कहने को आया था और मंच से समझाता रहा सब को बहार की बात। सुनी नहीं किसी ने किसी की भी बात। बहार का अनुभव बंद कमरों की सभा में करना और करवाना चाहते थे सभी। सब अपने अपने कुएं को समंदर समझ रहे थे , सब अपनी अपनी ऊंचाई बढ़ाने को आतुर थे और किसी ऊंची जगह खड़े होने की कोशिश कर रहे थे। रेत के टीले का क्या पता कब हवा में बिखर जाये। अपनी अपनी महिमा का बखान अपने अपने साथी से करवा खुद ही आत्ममुग्ध हुए जा रहे थे। कोई दूसरे की महिमा से प्रभावित नहीं हो रहा था। कोई हर किसी के पास जाकर अपनी नई दुकान का पता बता रहा था। कोई रौशनी बेच रहा था बहार वाले बाज़ार में तो कोई सहयोग का कारोबार करने की बात कर लेन देन पर ही अटका हुआ था।  सब महान काम करने का दावा कर रहे थे। मुझे बहार को देखना था मगर उस जगह खिज़ा ही खिज़ा हर तरफ दिखाई दे रही थी , सूखे पत्ते और उदासी थी छाई हुई। 

      लोग मतलब के बहुत सच्चे लगे , फूल कागज़ के सभी अच्छे लगे।


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