कुछ बंधे हुए कुछ खुले हुए हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
देखने में दोनों एक जैसे हैं , काम भी दोनों एक समान ही करते हैं। फिर भी अंतर बहुत है , जो खुले हैं गरीबी रेखा की बात करते हैं। जो बंधे हुए हैं वो अब बड़ी बड़ी बातें करते हैं कभी की थी गरीबी रेखा की बातें आजकल बदलाव की विकास की बातें , महान लोगों की बातें , फ़िल्मी नायक नायिकाओं की , खिलाडियों की बातें करते हैं। उनके लिए यही वास्तविक देश और समाज है बाकी 80 फीसदी जनता केवल इक आंकड़ा है। उस की बात तभी करनी होती है जब भूख से ख़ुदकुशी से हादसे से आपदा से उनकी मौत होती है। वो भी कुछ पल की खबर होती है। इनका काम कभी रखवाली करना हुआ करता था , चौकीदार की तरह जागते रहो की आवाज़ से सब को सावधान रखना और खबर की परिभाषा समझी जाती थी वो सूचना जो कोई लोगों तक नहीं जाने देना चाहता उसे तलाश करना और सब को बताना। आजकल खबर वही है जो नेता भाषण देते हैं , लोग खुद जाकर बताते हैं प्रेस नोट देकर। अधिकारियों की सभा बयान खबर हैं नेता की सरकार की हर बात खबर है। उनके कपड़े उनकी दोस्ती उनकी दुश्मनी उनकी घर की ही नहीं पूजा अर्चना जैसे व्यक्तिगत कामों की विस्तृत खबर। अख़बार टीवी सोशल मीडिया मिलकर एक हो गए हैं।
जो किसी के बंधे हुए नहीं हैं उनका भी सपना है किसी के साथ बंधने का। जो बंधा हुआ है उसका मालिक उसको आदेश देता है जाओ और खबर उठा कर लाओ। ठीक अपने पालतू जानवर की तरह जो उन्हीं की फैंकी बॉल को वापस उनको लाकर देता है। वो बार बार फैंकते है और उसे बार बार लाना होता है। अपने साथ बांधे हुए की ख़बरों को देखते हैं , खबर देखी जाती है पढ़ी नहीं , कुछ खबरों पर हड्डी डालते हैं और समझते हैं उनको हज़्म कर जाओ। कुछ खबरों पर विशेष ध्यान देने को कहते हैं जिनका संबंध पैसे से विज्ञापन से या किसे से मधुर संबंध से होता है। अपने मालिक के इशारे पर पट्टे से बंधे हुए टीवी पर ज़ोर ज़ोर से निडरता की स्वतंत्रता की निष्पक्षता की बातें कहते हैं। उनका हौंसला मालिक की ताकत है बिना मालिक की अनुमति उनकी आवाज़ बाहर नहीं निकलती है। उनको बड़े बड़े इनाम मिलते हैं बेबाक आवाज़ उठाने के लिए जबकि उनकी कही हर बात संपादित हुई होती है। संपादक उस खिलाड़ी का नाम है जो खेलता नज़र नहीं आता मगर वास्तविक खेल वही खेल रहा होता है अपने आका की ख़ुशी और ज़रूरत के लिए।
अभी अभी इक टीवी चैनल पर बहस जारी है , कल शाम को इक रेल दुर्घटना हुई जिसमें बहुत लोग मारे गए और घायल हुए , पता चला कि दुर्घटना का कारण रेलवे विभाग की लापरवाही है क्योंकि जिस पटड़ी पर रेल चल रही थी उस पर अभी पटड़ी की मुरम्मत का काम चल रहा था। विपक्षी दल की नेता के ये बात कहने पर कि जब यही नेता पिछले चुनाव में दावा करते थे कि उनकी सरकार आने पर रेलवे सुरक्षा में कोई कमी नहीं रहने दी जाएगी और ज़िम्मेदारी तय की जाएगी , तब सत्ताधारी दल के नेता के कुछ भी कहने से पहले एंकर ही कहने लगा कि आपकी सरकार के समय कितनी घटनाएं हुई थीं। अर्थात उस तथाकथित पत्रकार को लोगों की मौत और हादसे से अधिक चिंता सत्ताधारी दल की तरफ से सरकार और रेलवे विभाग का बचाव करना था। क्योंकि एंकर बंधा हुआ है और मालिक की ख़ुशी नाराज़गी का ध्यान रखना है अपने फ़र्ज़ की चिंता नहीं करनी। आज़ादी का जश्न मनाना और बात है और आज़ाद रहना अलग बात। आजकल जब हर कोई बिका हुआ है कोई उसके पास कोई इसके पास तब उनसे आम नागरिक की आज़ादी और न्याय की बात कहने की उम्मीद कौन करेगा।
बड़ी बड़ी बातें करना किस काम का जब आप पैसे के लिए अंधविश्वास बढ़ाने से लेकर झूठ का प्रचार करने तक और तमाम ऐसी बातें ऐसे विज्ञापन दिखाते हैं जो महिलाओं को एक वस्तु की तरह की मानसिकता को उजागर करते हैं। सब को सही गलत की परिभाषा बताने वाले खुद अपने आप को क्यों नहीं देखते कि उनकी पैसे की हवस ने समाज को कितना नुकसान दिया है। कोई करोड़पति बनाने के नाम पर जनता को इक झूठे सपने दिखलाता है तो कोई बिग बॉस के शो में हर तरह की गंदी बात को मनोरंजन के नाम पर पैसा बनाने को उपयोग करता है। अपनी आज़ादी का जितना अनुचित इस्तेमाल मीडिया ने किया है और जैसे खुद को धर्म राजनीति और हर बात पर सब से अधिक जानकर मानकर अपनी राय को थोपने तक का काम किया है और सब इस तरह से खुद को निर्णायक ही समझने लगे हैं वो कितना अनुचित है। आप कुछ हज़ार लोगों से बात करने का दावा करते हैं और घोषणा करते हैं देश की जनता किस को चुनाव में मतदान करेगी। क्या ये लोकतंत्र है , आप कौन हैं जनमत की भविष्यवाणी कर किसी के पक्ष विपक्ष करने वाले। काश सब को आईना दिखलाने वाले खुद अपनी सूरत भी देखते और समझते कि आपका खुद का पतन किस कदर हुआ है। इक मकसद होता था कभी जनता को सच बताना जागरुक करना जो आजकल पैसे बनाने को अपना सब से बड़ा ध्येय समझ इसी को सफलता समझने लगे हैं।